CTET History Notes In Hindi Pdf
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CTET SST Complete Notes(सम्पूर्ण नोट्स) |
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1. Geography Notes in Hindi |
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2. History Notes in Hindi |
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3. Political Science Notes in Hindi |
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History (इतिहास)
देश का नाम
इण्डिया शब्द की उत्पत्ति सिन्धु से हुई है जिसे संस्कृत में सिन्धु कहते हैं। लगभग 2500 साल पहले, ईरानियों और यूनानियों ने उत्तर-पश्चिम से सिंधु को हडोस या इंडोस कहा था, और इस नदी के पूर्व में भूमि क्षेत्र भारत के रूप में आया था। भरत नाम उत्तर पश्चिम में रहने वाले लोगों के एक समूह के लिए इस्तेमाल किया गया था। इस समूह का उल्लेख संस्कृत की प्रारंभिक (लगभग 3500 वर्ष पुरानी) कृति ऋग्वेद में भी मिलता है।
अतीत की जानकारी
हम अतीत के बारे में कई तरह से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इनमें से एक तरीका अतीत में लिखी गई पुस्तकों को खोजना और पढ़ना है। चूँकि ये पुस्तकें हाथ से लिखी गई थीं, इसलिए इन्हें (manuscript) पांडुलिपियाँ कहा जाता है।
पाण्डुलिपि (Manuscript)
- ये पाण्डुलिपियाँ प्रायः ताड़पत्रों (palm leaf) अथवा हिमालय क्षेत्र में उगने वाले भूर्ज (birch) नामक छाल से विशेष तरीके से तैयार भोजपत्र (birch bark) पर लिखी मिलती हैं।
- ये पाण्डुलिपियाँ मंदिरों और विहारों में प्राप्त होती हैं। इन पुस्तकों में धार्मिक मान्यताओं व व्यवहारों, राजाओं के जीवन, औषधियों (medicine) तथा विज्ञान आदि सभी प्रकार के विषयों की चर्चा मिलती है।
- प्राकृत भाषा का प्रयोग आम लोग करते थे।
अभिलेख (Inscription)
- ऐसे लेख पत्थर या धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतहों पर खुदे हुए पाए जाते हैं। कभी-कभी शासक या अन्य लोग अपने आदेशों को इस प्रकार उत्कीर्ण करवाते थे कि लोग उन्हें देख सकें, पढ़ सकें और उनका पालन कर सकें।
- अभिलेखों में शासक युद्धों में अर्जित विजयों का अभिलेख रखते थे।
पुरातत्त्वविद् (Archaeologists)
- जो व्यक्ति वस्तुओं का अध्ययन करता है उसे पुरातत्वविद कहते हैं। पुरातत्वविद पत्थर और ईंट से बनी इमारतों, चित्रों और मूर्तियों के अवशेषों का अध्ययन करते हैं। वे औजारों, हथियारों, बर्तनों, गहनों और सिक्कों की खोज और खुदाई भी करते हैं।
- पुरातत्वविदों को जानवरों, पक्षियों और मछलियों की हड्डियाँ भी मिली हैं। इससे उन्हें यह जानने में भी मदद मिलती है कि अतीत में लोग क्या खाते थे।
आरंभिक मानव (Earliest People)
जो दो लाख साल पहले इस उपमहाद्वीप में रहते थे। आज हम इन्हें शिकारी-संग्रहकर्ता (आखेटक-खाद्य संग्राहक ( Hunter-Gatherers)) के नाम से जानते हैं, भोजन व्यवस्था करने की विधि के आधार पर इन्हें इसी नाम से पुकारा जाता है। आमतौर पर ये अपने खाने के लिए जंगली जानवरों का शिकार करते थे।
मछलियाँ और चिड़िया पकड़ते थे, फल-मूल, दाने, पौधे पत्तियाँ, अंडे इकट्ठा किया करते थे।
- मनुष्यों के खाने योग्य जड़ों को खोदने के लिए पत्थर के औज़ारों का इस्तेमाल किया जाता था और कपड़ों की सिलाई के लिए जानवरों की खाल का इस्तेमाल किया जाता था।
- लोग गुफाओं में रहते थे क्योंकि यहाँ उन्हें बारिश, धूप और हवा से राहत मिलती थी। ये गुफाएँ नर्मदा घाटी के पास हैं
- स्थल वे स्थान होते हैं जहाँ औजारों, बर्तनों और भवनों जैसी वस्तुओं के अवशेष मिलते हैं।
पुरापाषाण (The Palaeolithic)
- पुरापाषाण काल बीस लाख साल पहले से 12,000 साल पहले के दौरान माना जाता है। यह दो शब्दों पुरा यानी ‘प्राचीन और पाषाण यानी ‘पत्थर’ से बना है। इस काल को भी तीन भागों में विभाजित किया गया है: ‘आरंभिक’, ‘मध्य’ एवं ‘उत्तर’ पुरापाषाण युग । मानव इतिहास की लगभग 99 % काल के दौरान घटित हुई।
मध्यपाषाण युग (Mesolithic / Middle stone)
- जिस काल में हमें पर्यावरणीय परिवर्तन मिलते हैं, उसे ‘मध्यपाषाण’ (‘Mesolithic’) अर्थात मध्य पाषाण युग कहा जाता है। इसका समय लगभग 12,000 वर्ष पूर्व से 10,000 वर्ष पूर्व तक माना गया है। इस काल के पत्थर के औजार सामान्यतः बहुत छोटे होते थे। इन्हें ‘माइक्रोलिथ्स’ कहा जाता है, यानी छोटे पत्थर, अक्सर इन औजारों में हंसिया और आरी जैसे उपकरण हड्डियों या लकड़ी के हत्थे के साथ पाए जाते थे। साथ ही पुरापाषाण युग के औजार भी इसी काल में बनाए गए थे।
नवपाषाण युग (Neolithic)
- अगला युग लगभग 10,000 साल पहले शुरू होता है। इसे नवपाषाण युग कहा जाता है।
- पालतू बनाया जाने वाला पहला जंगली जानवर कुत्ते का जंगली पूर्वज था। धीरे-धीरे लोगों ने भेड़, बकरी, गाय और सूअर जैसे जानवरों को अपने घरों के करीब आने के लिए प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया।
- नवपाषाण युग के सबसे प्रसिद्ध स्थलों में से एक तुर्की में चाटाल यूके है। बहुत सी वस्तुएँ दूर-दूर से यहाँ लायी जाती थीं और उनका उपयोग किया जाता था। जैसे कि सीरिया से लाया गया चकमक पत्थर, लाल सागर से कौड़ियाँ, और भूमध्य सागर से गोले
खेती और पशुपालन (Farming and Herding)
लोगों द्वारा पौधे उगाने और जानवरों की देखभाल करने को ‘बसने की प्रक्रिया’ का नाम दिया गया है।
- बुर्जहोम (वर्तमान कश्मीर में है) के लोग गड्ढे के नीचे घर बनाते थे जिन्हे गर्तवा कहा जाता है। इनमें उतरने के लिए सीढ़ियाँ होती थीं। इससे उन्हें ठंढ के मौसम में सुरक्षा मिलती थी |
- फ्रांस में गुफा में की गई चित्राकारी में प्रयोग होने वाले रंगो को लौह-अयस्क और चारकोल जैसे खनिज पदार्थों से बनाया जाता था |
हड़प्पा सभ्यता नगर
हड़प्पा सभ्यता के शहर आधुनिक पाकिस्तान के पंजाब और सिंध प्रांतों, भारत के गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब प्रांतों में पाए गए हैं। इन स्थलों में से प्रत्येक में, पुरातत्वविदों को अनूठी वस्तुएँ मिली हैं: काली आकृतियों के साथ लाल मिट्टी के बर्तन, पत्थर के बाट, मुहरें, मनके, ताँबे के औजार और लंबे पत्थर के ब्लेड। इसके ऊंचे हिस्से को पुरातत्वविद नगर दुर्ग और नीचे के हिस्से को निकला-नगर कहते हैं। दोनों भागों की चारदीवारी पक्की ईंटों से बनी थी।
- मोहनजोदड़ो में एक विशेष तालाब का निर्माण किया गया था, जिसे पुरातत्वविदों ने महास्नानघर कहा है।
- कालीबंगा और लोथल जैसे अन्य शहरों में अग्निकुंड पाए गए हैं, जहाँ शायद बलि दी जाती थी। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और लोथल जैसे कुछ शहरों में बड़े अन्न भंडार पाए गए हैं।
- मेहरगढ़ में 7000 साल पहले कपास की खेती होती थी।
- शहरों की शुरुआत करीब 4700 साल पहले हुई थी।
- हड़प्पाकालीन नगरों के अंत की शुरुआत लगभग 3900 वर्ष पूर्व हुई।
- लगभग 2500 साल पहले अन्य शहरों का विकास हुआ।
कच्चे माल की खोज
- हड़प्पा के लोग ताँबे का आयात सम्भवतः आज के राजस्थान से करते थे । यहाँ तक कि पश्चिम एशियाई देश ओमान से भी ताँबे का आयात किया जाता था। काँसा (bronze) के लिए तांबे (copper) के साथ मिलाई जाने वाली धातु टिन (tin) का आयात आधुनिक ईरान और अफगानिस्तान से किया जाता था। सोने का आयात आधुनिक कर्नाटक और बहुमूल्य पत्थर (precious stones) का आयात गुजरात, ईरान और अफगानिस्तान से किया जाता था ।
सभ्यता के अंत का रहस्य
- कुछ विद्वान कहते हैं, नदियाँ सूख चुकी थीं। दूसरों का कहना है कि जंगल नष्ट हो गए। इसका कारण यह हो सकता है कि ईंटों को पकाने के लिए ईंधन की आवश्यकता होती थी। इसके अलावा, मवेशियों के बड़े झुंड ने चरागाहों और घास के मैदानों को नष्ट कर दिया होगा। कुछ इलाकों में पानी भर गया। लेकिन इन कारणों से यह स्पष्ट नहीं है कि सभी नगरों का अंत कैसे हुआ। क्योंकि बाढ़ और नदियों के सूखने का असर कुछ ही इलाकों में होगा.
फ्रेयन्स
- पत्थर और शंख प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं, लेकिन फ्रीऑन कृत्रिम रूप से तैयार किया जाता है। गोंद के साथ रेत या क्वार्ट्ज पत्थर के पाउडर को मिलाकर लेख बनाए जाते थे। इसके बाद उन वस्तुओं पर चिकनी परत चढ़ाई गई। इस चिकनी परत का रंग आमतौर पर नीला या हल्का समुद्री हरा होता था।
ऋग्वेद
- ऋग्वेद सबसे पुराना वेद है, जिसकी रचना (Composition) लगभग 3500 वर्ष पूर्व हुई थी। ऋग्वेद में एक हजार से अधिक प्रार्थनाएँ हैं जिन्हें सूक्त कहा जाता है। सूक्त का अर्थ होता है अच्छा बोलने वाला। ऋग्वेद की भाषा को प्राकृत संस्कृत या वैदिक संस्कृत कहा जाता है।
- ऋग्वेद का पाठ किया जाता था और सुना जाता था और पढ़ा नहीं जाता था। इसकी रचना के कई सदियों बाद इसे पहली बार लिखा गया था। यह मुश्किल से 200 साल पहले छपा था।
महापाषाण
(Megaliths )
शिलाखण्ड महापाषाण (महा: बड़ा, पाषाण: पत्थर) नाम से जाने जाते हैं। ये पत्थर दफन करने की जगह पर लोगों द्वारा बड़े करीने से लगाए गए थे। महापाषाण कब्रें बनाने की प्रथा लगभग 3000 साल पहले शुरू हुई। यह प्रथा दक्कन, दक्षिण भारत, उत्तर-पूर्वी भारत और कश्मीर में प्रचलित थी ।
जनपद
- जनपद का शाब्दिक अर्थ जन के बसने की जगह होता है। पुरातत्त्वविदों ने इन जनपदों की कई बस्तियों की खुदाई की है। दिल्ली में पुराना किला, उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हस्तिनापुर और एटा के पास अतरंजीखेड़ा इनमें प्रमुख हैं। खुदाई से पता चला है कि लोग झोपड़ियों में रहते थे और मवेशियों तथा अन्य जानवरों को पालते थे। वे चावल, गेहूँ, धान, जौ, दालें, गन्ना, तिल तथा सरसों जैसी फसलें उगाते
थे। - इन पुरास्थलों में कुछ विशेष प्रकार के बर्तन मिले हैं, जिन्हें ‘चित्रित – धूसर पात्र के रूप में जाना जाता है।
महाजनपद
- लगभग 2500 वर्ष पूर्व कुछ जनपद अधिक महत्वपूर्ण हो गए। इन्हें महाजनपद के नाम से जाना जाने लगा। अर्थात् इनके चारों ओर लकड़ी, ईंट या पत्थर की ऊँची-ऊँची दीवारें बनायी जाती थीं। इसलिए, महाजनपद के राजा समय-समय पर लोगों द्वारा लगाए गए उपहारों पर निर्भर रहने के बजाय नियमित रूप से कर वसूलने लगे। फसलों पर लगाए गए कर सबसे महत्वपूर्ण थे क्योंकि अधिकांश लोग किसान थे। सामान्यतः उपज का 1/6 भाग कर के रूप में नियत किया जाता था जिसे भाग कहा जाता था।
कृषि में परिवर्तन
- इस युग में कृषि के क्षेत्र में दो बड़े परिवर्तन आए । हल के फाल अब लोहे के बनने लगे। अब कठोर जमीन को लकड़ी के फाल की के फाल से आसानी से जोता जा सकता था।
- लोगों ने धान के पौधें का रोपण शुरू किया अर्थात् खेतों में बीज छिड़ककर धान उपजाने के बजाए धान की तैयार कर उनका रोपण शुरू किया गया।
मगध
- मगध में गंगा और सोन जैसी नदियाँ बहती थीं।
- मगध में दो बहुत शक्तिशाली शासक बिंबिसार और अजातशत्रु थे।
- बिहार में राजगृह (आधुनिक राजगीर) कई वर्षों तक मगध की राजधानी बना रहा। बाद में पाटलिपुत्र (आज का पटना) को राजधानी बनाया गया। मगध एक शक्तिशाली राज्य बन गया था। इसके निकट ही वज्जि का राज्य था, जिसकी राजधानी वैशाली (बिहार) थी। यहाँ एक भिन्न प्रकार की शासन व्यवस्था थी जिसे गण या संघ कहा जाता था।
- बुद्ध और महावीर दोनों गण या संघ के थे।
बुद्ध की कहानी
- सिद्धार्थ, जिन्हें गौतम के नाम से भी जाना जाता है, बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। उनका जन्म लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुआ था।
- बुद्ध एक क्षत्रिय थे और ‘शाक्य’ नामक एक छोटे से वर्ग के थे। युवावस्था में ही उन्होंने ज्ञान की खोज में घर के सुख-सुविधाओं को छोड़ दिया था। उन्होंने बोधगया (बिहार) में एक पीपल के पेड़ के नीचे कई दिनों तक तपस्या की।
- वे वाराणसी के पास सारनाथ गए, जहाँ उन्होंने पहली बार उपदेश दिया। उन्होंने अपनी मृत्यु से पहले अपना शेष जीवन कुशीनगर में एक जगह से दूसरी जगह पैदल यात्रा करने और लोगों को पढ़ाने में बिताया।
- कभी-कभी हम जो चाहते हैं उसे पाने के बाद भी संतुष्ट नहीं होते हैं और अधिक (या अन्य) चीजों की इच्छा करने लगते हैं। बुद्ध ने इस लिप्सा को तृष्णा कहा है। अपनी शिक्षा आम लोगों की प्राकृत भाषा में दी।
बौद्ध धर्म (Buddhism)
- कुषाणों का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क था। उसने लगभग 1900 वर्ष पूर्व शासन किया था। बौद्ध धर्म श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड और इंडोनेशिया सहित दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य हिस्सों में भी फैला।
- चीनी बौद्ध तीर्थयात्री फा-शियान काफी प्रसिद्ध है। वह करीब 1600 साल पहले आया था। Xuanzang 1400 साल पहले भारत आया था और उसके लगभग 50 साल बाद Etsing आया था।
- उस समय के सबसे प्रसिद्ध बौद्ध शिक्षा केंद्र नालंदा (बिहार) के Hsuan Tsang और अन्य तीर्थयात्रियों ने हिंदुओं के पवित्र ग्रंथ भगवद्गीता में भक्ति मार्ग पर चर्चा की। भगवद गीता महाभारत का एक हिस्सा है।
उपनिषद्
उपनिषद बाद के वैदिक ग्रंथों का हिस्सा थे। उपनिषद का शाब्दिक अर्थ है। गुरु के पास बैठना है।
जैन धर्म
- लगभग 2500 वर्ष पूर्व जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर ने भी अपने विचारों का प्रसार किया। वह वज्जी संघ के लिच्छवी वंश का एक क्षत्रिय राजकुमार था। 30 साल की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया और जंगल में रहने लगे। बारह वर्षों तक उन्होंने एक कठिन और एकाकी जीवन व्यतीत किया।
- जैन धर्म के उपदेश अपने वर्तमान स्वरूप में लगभग 1500 वर्ष पूर्व गुजरात के वल्लभी नामक स्थान पर लिखे गए थे।
- जैन शब्द की उत्पत्ति ‘जिन’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ होता है विजेता।
- लगभग उसी समय जब जैन धर्म और बौद्ध धर्म लोकप्रिय हो रहे थे, ब्राह्मणों ने आश्रम व्यवस्था विकसित की। महावीर ने अपनी शिक्षा प्राकृत में की।
संघ
महावीर और बुद्ध दोनों का मानना था कि घर का त्याग करके ही सच्चा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ऐसे लोगों के लिए उन्होंने संघ नाम की एक संस्था बनाई जहां घर-बार छोड़ चुके लोग एक साथ रह सकें। संघ में रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं के लिए बनाए गए नियम विनयपिटक नामक ग्रंथ में मिलते हैं।
एक साम्राज्य
(An Empire)
- रुपये और पैसे पर हम जो शेरों की तस्वीरें देखते हैं, उनका एक लंबा इतिहास रहा है।
- उन्हें पत्थर से तराशा गया और फिर सारनाथ में एक विशाल स्तंभ पर स्थापित किया गया।
- अशोक ने जिस साम्राज्य पर शासन किया उसकी स्थापना उसके दादा चंद्रगुप्त मौर्य ने लगभग 2300 वर्ष पूर्व की थी। चंद्रगुप्त को चाणक्य या कौटिल्य नामक एक बुद्धिमान व्यक्ति ने मदद की थी
- राजवंश जब एक ही परिवार के अनेक सदस्य एक के बाद एक राजा बनते हैं तो उन्हें एक ही वंश का कहा जाता है।
मौर्य वंश
- मौर्य वंश में तीन महत्वपूर्ण राजा हुए बिन्दुसार का पुत्र अशोक |
- मेगस्थनीश, चन्द्रगुप्त के दरबार में पश्चिम-एशिया के यूनानी राजा सेल्यूकस निकेटर का राजदूत (ambassador) था |
मौर्य साम्राज्य
- लगभग 2400 साल पहले, मौर्य साम्राज्य के उदय से कुछ समय पहले, चीन में सम्राटों ने चीन की महान दीवार का निर्माण शुरू किया था। इसे बनाने का मकसद उत्तरी सीमा को पशुपालकों से बचाना था। इस दीवार का निर्माण अगले 2000 वर्षों तक जारी रहा, क्योंकि साम्राज्य की सीमाएं बदलती रहीं। यह दीवार लगभग 6400 किलोमीटर लंबी है और हर 100-200 मीटर की दूरी पर इसकी निगरानी के लिए गढ़ बनाए गए हैं।
अशोक
अशोक मौर्य वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक थे। वह पहला शासक थे। जिसने शिलालेखों के माध्यम से अपना संदेश जनता तक पहुँचाने का प्रयास किया। अशोक के अधिकांश शिलालेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में हैं।
- धम्म संस्कृत शब्द धर्म का प्राकृत रूप है।
- कलिंग तटवर्ती उड़ीसा का प्राचीन नाम है हुए
- अशोक भी बुद्ध की शिक्षाओं से प्रेरित थे।
- अशोक ने धम्म के विचारों को फैलाने के लिए सीरिया, मिस्र, ग्रीस और श्रीलंका में दूत भी भेजे।
गाँवों में रहने वाले लोग
- तमिल क्षेत्र में, बड़े भूस्वामियों को वेल्लाल, साधारण जोतदारों को उनवार और भूमिहीन मजदूरों को दास, कदैसियार और अदिमाई कहा जाता था।
- गाँव का प्राधन व्यक्ति ग्राम भोजक कहलाता था। अक्सर एक ही परिवार के लोग इस पद पर कई पीढ़ियों तक बने रहते थे। यानी यह पद आनुवंशिक था। ग्राम- भोजकों के अलावा अन्य स्वतंत्र कृषक भी होते थे जिन्हें गृहपति कहते थे |
- जातक वो कहानियाँ जो आम लोगों में प्रचलित थीं। बौद्ध भिक्खुओं ने इनका संकलन किया। जातक में प्राचीन शहरों के बारे में वहाँ गए नाविकों तथा यात्रियों के विवरणों द्वारा भी पता चलता है।
- प्रचलित सिक्के आम तौर पर आयताकार और कभी-कभी चौकोर या गोल होते थे। इन्हें या तो धातु की शीट को काटकर या धातु की गेंदों को चपटा करके बनाया जाता था। इन सिक्कों पर कुछ भी नहीं लिखा होता था, बल्कि इन पर मुहर लगाकर कुछ चिन्ह बनाए जाते थे। इसलिए इन्हें आहत सिक्के कहा जाता है। ये सिक्के उपमहाद्वीप के लगभग अधिकांश भागों में पाए जाते हैं और ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों तक प्रचलन में थे।
सिक्कें (Coins)
चाँदी या सोने के सिक्कों पर विभिन्न आकृतियों को आहत कर बनाए जाने के कारण इन्हें आहत (गढ़े हुए सिक्के) सिक्का कहा जाता था।
- मथुरा एक धार्मिक केंद्र भी रहा है। यहां बौद्ध विहार और जैन मंदिर हैं। यह कृष्ण भक्ति का एक महत्वपूर्ण केंद्र था।
- मथुरा के शिलालेखों में सुनारों, लोहारों, बुनकरों, टोकरी बुनकरों, माला बनाने वालों और इत्र बनाने वालों का उल्लेख है।
अरिकामेड
- लगभग 2200 से 1900 साल पहले अरिकामेडु एक पत्तन था, यहाँ दूर-दूर से आए जहाजों से सामान उतारे जाते थे। यहाँ भूमध्य सागरीय क्षेत्र के एंफोरा जैसे पात्र मिले हैं। साथ ही यहाँ ‘एरेटाइन’ जैसे मुहर लगे लाल चमकदार बर्तन भी मिले हैं। इन्हें इटली के एक शहर के नाम पर ‘एरेटाइन’ पात्र के नाम से जाना जाता है |
रोम
- रोम एक बहुत बड़े साम्राज्य की राजधनी था। यह यूरोप, उत्तरी अफ्रीका का तथा पश्चिमी एशिया तक फैला साम्राज्य था। इसके सबसे महत्वपूर्ण शासकों में से एक ऑगस्टस ने करीब 2000 साल पहले शासन किया था । उसने कहा था कि रोम ईंटों का शहर था,
व्यापार और व्यापारी
(Trade and Trader)
दक्षिण भारत सोना, मसाले (spices), खास तौर पर काली मिर्च (pepper) तथा कीमती पत्थरों के लिए प्रसिद्ध था। काली मिर्च की रोमन साम्राज्य में इतनी माँग थी कि इसे काले सोने (black gold )’ के नाम से बुलाते थे।
- मुवेंदर की चर्चा संगम कविताओं में मिलती है। यह एक तमिल शब्द है जिसका अर्थ तीन सिर होता है।
- सातवाहनों के सबसे प्रमुख राजा गौतमी के पुत्र श्री सातकर्णी थे।
रेशम मार्ग (Silk Route)
रेशम बनाने की तकनीक का आविष्कार सबसे पहले चीन में लगभग 7000 साल पहले हुआ था। जिस मार्ग से ये लोग यात्रा करते थे वह रेशम मार्ग (Silk Route) के नाम से प्रसिद्ध हुआ। रेशम मार्ग को नियंत्रित करने वाले शासकों में सबसे प्रसिद्ध कुषाण थे।
पेशावर और मथुरा इनके 2 मुख्य शक्तिशाली केंद्र थे। तक्षशिला भी इनके ही राज्य का हिस्सा था।
- इलाहाबाद का पुराना नाम, संगमनगरी, कुंभनगरी, तंबूनगरी, उज्जैन था। (वर्ष 1500 में एक मुस्लिम राजा द्वारा शहर का नाम प्रयागराज से इलाहाबाद में बदल दिया गया था, जिसे अक्टूबर 2018 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा वापस प्रयागराज में बदल दिया गया था।
- पटना का पुराना नाम पाटलिपुत्र था। ये महत्वपूर्ण केंद्र थे |
वंशावलियाँ
(Genaealogies)
चंद्रगुप्त गुप्त वंश का पहला शासक था, जिसने महाराजाधिराज की महान उपाधि धारण की थी। समुद्रगुप्त ने भी यह उपाधि धारण की थी। कवि कालिदास और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट उनके दरबार में थे।
हर्षवर्धन तथा हर्षचरित
- राजा हर्षवर्धन जिन्होंने लगभग 1400 वर्ष पूर्व शासन किया था। उनके दरबारी कवि बाणभट्ट ने संस्कृत में उनकी जीवनी हर्षचरित लिखी।
- चीनी यात्री जुआन त्सांग (Xuan Tsang) लंबे समय तक हर्ष के दरबार में रहा।
पल्लव, चालुक्य और पुलकेशिन द्वितीय
पल्लवों का राज्य उनकी राजधनी काँचीपुरम के आस-पास के क्षेत्रों से लेकर कावेरी नदी के डेल्टा तक फैला था, जबकि चालुक्यों का राज्य कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच स्थित था। चालुक्यों की राजधनी ऐहोल थी। यह एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था। पुलकेशिन द्वितीय सबसे प्रसिद्ध चालुक्य राजा थे। उनके बारे में दरबारी कवि रविकीर्ति द्वारा रचित प्रशस्ति से पता चलता है।
- प्रशासन की प्राथमिक इकाई गाँव होते थे।
- कालिदास अपने नाटकों में राज दरबार के जीवन के चित्रण के लिए प्रसिद्ध है। उनका सबसे प्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शांकुतलम है।
- अरब में रहने वाले अन्य लोगों में बेदुइन थे, जो घुमक्कड़ कबीले (pastoral tribes) होते थे।
धातु विज्ञान
(Metallurgy)
प्राचीन भारतीय धातु वैज्ञानिकों ने विश्व धातु विज्ञान के क्षेत्र में प्रमुख योगदान दिया है। पुरातात्विक खुदाई ने यह दर्शाया है कि हड़प्पावासी कुशल शिल्पी (craftsmen ) थे और उन्हें तांबे के धातु कर्म (धतुशोधन) (copper metallurgy) की जानकारी थी। उन्होंने तांबे और टिन को मिलाकर कांसा भी बनाया था। जहाँ हड़प्पावासी कांस्य युग से जुड़े थे वहीं उनके उत्तराधिकारी लौह युग से संबंध थे। भारत अत्यंत विकसित किस्म के लोहे का निर्माण करता था खोटा लोहा, पिटवा लोहा, ढलवा लोहा |
- स्तूप का शाब्दिक अर्थ टीला होता है
अजंता
यह वह जगह है, जहाँ के पहाड़ों में सेकड़ो सालों के दौरान कई गुफाएँ खोदी गईं। इनमें से ज्यादातर बौद्ध भिक्षुओं के लिए बनाए गए विहार थे। गुफाओं के अंदर अँधेरा होने की वजह से, अधिकांश चित्र मशालों की रोशनी में बनाए गए थे। इनमें से कुछ को चित्रों द्वारा सजाया गया था। इन चित्रों के रंग 1500 साल बाद भी चमकदार हैं। ये रंग पौधें तथा खनिजों से बनाए गए थे। इन महान कृतियों को बनाने वाले कलाकार अज्ञात हैं।
- करीब 1800 साल पहले एक प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य सिलप्पदिकारम की रचना इलांगो नामक कवि ने की।
- तमिल महाकाव्य, मणिमेखलई को करीब 1400 साल पहले सत्तनार द्वारा लिखा गया।
- कालिदास जी संस्कृत में लिखते थे।
पुराण
- पुराण का शब्दिक अर्थ है प्राचीन या पुराण पुराणों में विष्णु, शिव, दुर्गा या पार्वती जैसे देवी-देवताओं से जुड़ी कहानियाँ हैं। अधिकतर पुराण सरल संस्कृत श्लोक में लिखे गए हैं, जिससे सब उन्हें सुन और समझ सके। स्त्रियाँ तथा शूद्र जिन्हें वेद पढ़ने की अनुमति नहीं थी वे भी इसे सुन सकते थे |
- पुराणों और महाभारत दोनों को ही व्यास नाम के ऋषि ने संकलित किया था। महाभारत में ही भगवद् गीता भी है |
- रामायण के लेखक वाल्मीकि माने जाते है |
आर्यभट्ट
- गणितज्ञ तथा खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने संस्कृत में आर्यभट्टीयम नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने वृत्त की परिधि को मापने की भी विधि ढूँढ़ निकाली
आयुर्वेद
- आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान की एक विख्यात पद्धति है जो प्राचीन भारत में विकसित हुई। प्राचीन भारत में आयुर्वेद के दो प्रसिद्ध चिकित्सक थे चरक (प्रथम – द्वितीय शताब्दी ईस्वी) और सुश्रुत (चौथी शताब्दी ईस्वी) चरक द्वारा रचित चरकसंहिता औषधिशास्त्र की एक उल्लेखनीय पुस्तक है
- कागज का आविष्कार करीब 1900 साल पहले काई लून नाम के व्यक्ति चीन में किया। कागज बनाने की तकनीक को सदियों तक गुप्त रखा गया। करीब 1400 साल पहले यह कोरिया तक पहुँची।
शब्दावली (Terminologies)
- ‘हिंदुस्तान’ शब्द आज हम इसे आधुनिक राष्ट्र राज्य ‘भारत’ के अर्थ में लेते हैं। लेकिन तेरहवीं सदी में जब फ़ारसी के इतिहासकार मिन्हाज – ए – सिराज ने हिंदुस्तान शब्द का प्रयोग किया था तो उसका आशय पंजाब, हरियाणा और गंगा-यमुना के बीच में स्थित इलाकों से था। उसने इस शब्द का राजनीतिक अर्थ में उन इलाकों के लिए इस्तेमाल किया जो दिल्ली के सुलतान के अधिकार क्षेत्र में आते थे।
- सल्तनत के प्रसार के साथ-साथ इस शब्द के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र भी बढ़ते गए, लेकिन हिंदुस्तान शब्द में दक्षिण भारत का समावेश कभी नहीं हुआ। इसके विपरीत, सोलहवीं सदी के आंरभ में बाबर ने हिंदुस्तान शब्द का प्रयोग इस उपमहाद्वीप के भूगोल, पशु-पक्षियों और यहाँ के निवासियों संस्कृति का वर्णन करने के लिए किया |
अभिलेखागार (Archive)
ऐसा स्थान जहाँ दस्तावेज और पांडुलिपियों (Manuscripts) को संग्रहित किया जाता है। आज सभी राष्ट्रीय और राज्य सरकारों के अभिलेखागार होते हैं जहाँ वे अपने तमाम पुराने सरकारी अभिलेख और लेन-देन के ब्यौरों का रिकॉर्ड रखते हैं।
- प्रतिलिपियाँ बनाते हुए लिपिक छोटे-मोटे फेर – बदल करते चलते थे |
- पर्यावास (Habitat ) इसका तात्पर्य किसी भी क्षेत्र के पर्यावरण और वहाँ के रहने वालों की सामाजिक और आर्थिक जीवन शैली से है।
जाति पंचायत
अपने सदस्यों के व्यवहार का नियंत्रण करने के लिए जातियाँ स्वयं अपने-अपने नियम बनाती थीं। इन नियमों का पालन जाति के बड़े-बुजुर्गो की एक सभा करवाती थी जिसे कुछ इलाकों में ‘जाति पंचायत कहा जाता था।
भाषा तथा क्षेत्र (Language and region)
सन् 1318 में कवि अमीर खुसरो ने इस बात पर गौर किया था कि इस देश के हर क्षेत्र की एक अलग भाषा है: सिंधी, लाहौरी, काश्मीरी, द्वारसमुद्री (दक्षिण कर्नाटक में), तेलंगानी (आंध्र प्रदेश में), गूजरी (गुजरात में), मअबारी (तमिलनाडु में), गौड़ (बंगाल में)…अवधी (पूर्वी उत्तर प्रदेश में) और हिंदवी ( दिल्ली के आस-पास के क्षेत्र में)।” अमीर खुसरो ने बताया कि इन भाषाओं के एक भाषा संस्कृत भी है जो किसी विशेष क्षेत्र की भाषा नहीं है। यह एक प्राचीन भाषा है “जिसे केवल ब्राह्मण जानते हैं, आम जनता नहीं । ”
संस्कृत ग्रंथों के ज्ञान के कारण समाज में ब्राह्मण संरक्षक थे, नए-नए शासक जो स्वयं प्रतिष्ठा की होने के कारण समाज में इनका दबदबा और भी आदर होता था। इनके थे। इन संरक्षकों का समर्थन जाता था।
- संरक्षक कोई प्रभावशाली, धनी व्यक्ति जो किसी कलाकार, शिल्पकार विद्वान या अभिजात जैसे किसी अन्य व्यक्ति को मदद या सहारा दे।
- उन्नीसवीं सदी के मध्य में अंग्रेज इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को तीन युगों में बाँटा थाः ‘हिंदू’, ‘मुसलिम’ और ‘ब्रिटिश’ |
कुरआन शरीफ
- कुरान शरीफ का संदेश पहली बार सातवीं शताब्दी में व्यापारियों और अप्रवासियों के माध्यम से भारत पहुंचा। मुसलमान, जो कुरान को अपना धर्मग्रंथ मानते हैं, केवल एक ईश्वर, अल्लाह के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, जिसका प्यार, करुणा और उदारता हर उस व्यक्ति को गले लगाती है जो सामाजिक पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना उस पर विश्वास करता है।
नए राजवंशों का उदय (The Emergence of New Dynasties)
सातवीं सदी आते-आते उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में बड़े भूस्वामी और योद्धा – सरदार अस्तित्व में आ चुके थे। राजा लोग प्रायः उन्हें अपने मातहत (subordinates) या सामंत के रूप में मान्यता देते थे। सामंत अपने-आप को महासामंत, महामंडलेश्वर (पूरे मंडल का महान स्वामी) आदि घोषित कर देते थे।
- कदंब मयूरशर्मन और गुर्जर-प्रतिहार हरिचंद्र ब्राह्मण थे जिन्होंने अपने पारंपरिक पेशे को छोड़ दिया और हथियार उठाए और क्रमशः कर्नाटक और राजस्थान में अपने राज्य स्थापित किए।
- एलोरा गुफा फ्रेस्को, जिसमें विष्णु को नरसिंह यानी नर-शेर के रूप में दिखाया गया है। यह भित्ति चित्र राष्ट्रकूट काल की उत्कृष्ट कृति है।
- महाराजाधिराज को राजाओं का राजा कहा जाता था और त्रिभुवन-चक्रवर्ती तीनों भुवनों के स्वामी थे।
- तमिलनाडु पर शासन करने वाले चोल वंश के शिलालेखों में विभिन्न प्रकार के करों के लिए 400 से अधिक सांकेतिक शब्द हैं। सबसे अधिक उल्लेखित कर वेट्टी है, जो नकद के बजाय जबरन श्रम के रूप में लिया जाता था।
प्रशस्तियाँ और भूमि-अनुदान
प्रशस्तियों में ऐसे ब्यौरे होते हैं, जो शब्दशः सत्य नहीं भी हो सकते। लेकिन ये प्रशस्तियाँ हमें बताती हैं कि शासक खुद को केसा दर्शाना चाहते थे। कई शासकों ने प्रशस्तियों में अपनी उपलब्धियों का बखान किया है। संस्कृत में लिखी गई, ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में पाई गई एक प्रशस्ति में प्रतिहार नरेश, नागभट्ट ‘ के कामों का वर्णन मिलता है।
राजा लोग प्रायः ब्राह्मणों को भूमि अनुदान से पुरस्कृत करते थे। ये ताम्र पत्रों पर अभिलिखित होते थे, जो भूमि पाने वाले को दिए जाते थे।
- प्रशंसापत्रों में विवरण हैं, जो अक्षरशः सत्य नहीं हो सकते हैं। लेकिन ये प्रशस्तियां हमें बताती हैं कि शासक किस तरह से खुद को चित्रित करना चाहते थे। अनेक शासकों ने प्रशस्तियों में अपनी उपलब्धियों का वर्णन किया है। ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में प्राप्त एक शिलालेख, जो संस्कृत में लिखा गया है, प्रतिहार राजा नागभट्ट के कार्यों का वर्णन करता है।
- राजा प्रायः ब्राह्मणों को भूमि अनुदान से पुरस्कृत करते थे। ये तांबे की प्लेटों पर दर्ज किए गए थे, जो जमीन के प्राप्तकर्ता को दिए गए थे।
- बारहवीं शताब्दी में एक बड़ी संस्कृत कविता भी रची गई थी, जिसमें कश्मीर पर शासन करने वाले राजाओं का इतिहास दर्ज है। इसकी रचना कल्हण नामक रचयिता ने की थी।
- शासकों ने भी बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण कर अपनी शक्ति और संसाधनों का प्रदर्शन करने का प्रयास किया। इसलिए जब वे एक-दूसरे के राज्यों पर आक्रमण करते थे तो मंदिरों को भी निशाना बनाते थे।
- अफगानिस्तान में गजनी का सुल्तान महमूद ऐसे शासकों में सबसे प्रसिद्ध है, उसने गुजरात में सोमनाथ के मंदिर को लूटा
- उन्होंने उपमहाद्वीप का लेखा-जोखा लिखने के लिए अल-बिरूनी नामक एक विद्वान को नियुक्त किया। अरबी में लिखी गई उनकी रचना किताब अल-हिंद आज भी इतिहासकारों के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत है।
चाहमान
- चाहमना, जो बाद में चौहान के नाम से जाने गए। उन्होंने दिल्ली और अजमेर के आसपास के क्षेत्र पर शासन किया।
- चाहमानों का सबसे प्रसिद्ध शासक पृथ्वीराज तृतीय था, जिसने 1191 में अफगान शासक सुल्तान मुहम्मद गोरी को हराया था, लेकिन दूसरे वर्ष, 1192 में उसके द्वारा पराजित किया गया था।
चोल शासक
- राजराज प्रथम, को सबसे शक्तिशाली चोल शासक माना जाता है, राजराज के पुत्र का नाम राजेंद्र प्रथम था उसने गंगा घाटी, श्रीलंका तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों पर हमला किया। इन अभियानों के लिए उसने एक जलसेना भी बनाई।
राजराज और राजेंद्र प्रथम द्वारा बनवाए गए तंजावूर और गंगईकोंडचोलपुरम के बड़े मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला की दृष्टि से एक चमत्कार हैं।
- जलद्वार पारंपरिक रूप से एक लकड़ी या धातु अवरोध होता है, जिसका उपयोग आमतौर पर नदियों और नहरों में जल स्तर और प्रवाह दर को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है।
- किसानों की बस्तियाँ, जिन्हें ‘उर’ कहा जाता था, सिंचित कृषि से बहुत समृद्ध हो गईं। ऐसे गाँवों के समूह को ‘नाडू’ कहा जाता था।
अभिलेख और लिखित सामग्री
उत्तरमेरुर अभिलेख के अनुसार सभा की सदस्यता:
सभा में सदस्यता के इच्छुक व्यक्ति ऐसी भूमि के स्वामी होने चाहिए जिससे भू-राजस्व वसूल किया जाता है। उनका अपना घर होना चाहिए। उनकी उम्र 35 से 70 के बीच होनी चाहिए। उन्हें वेदों का ज्ञान होना चाहिए। उसे प्रशासनिक मामलों का अच्छा ज्ञान होना चाहिए और ईमानदार होना चाहिए। यदि कोई पिछले तीन वर्षों में किसी समिति का सदस्य रहा है, तो वह किसी अन्य समिति का सदस्य नहीं बन सकता है। जिसने अपने या अपने रिश्तेदारों के खाते में जमा नहीं किया है वह चुनाव नहीं लड़ सकता है।
- तोमरों और चौहानों के शासनकाल में दिल्ली वाणिज्य का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। देहलीवाल नामक सिक्के भी यहाँ ढाले गए थे, जो बहुत लोकप्रिय थे।
दिल्ली के शासक
दिल्ली के शासक |
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तोमर | आरंभिक बारहवीं शताब्दी – 1165 |
अनंगपाल | 1130-1145 |
चौहान | 1165-1192 |
पृथ्वीराज चौहान | 1175-1192 |
प्रारंभिक तुर्की शासक | 1206-1290 |
कुतुबुद्दीन ऐबक | 1206-1210 |
शमसुद्दीन इल्तुतमिश | 1210-1236 |
रजिया | 1236-1240 |
ग्यासुद्दीन बलबन | 1266-1287 |
ख़लजी वंश | 1290-1320 |
जलालुद्दीन ख़लजी | 1290-1296 |
अलाउद्दीन खलजी | 1296-1316 |
तुग़लक़ वंश | 1320-1414 |
ग्यासुद्दीन तुग़लक़ | 1320-1324 |
मुहम्मद तुग़लक़ | 1324-1351 |
फिरोज शाह तुग़लक़ | 1351-1388 |
सैयद वंश | 1414-1421 |
लोदी वंश | 1451-1526 |
बहलोल लोदी | 1451-1489 |
न्याय-चक्र
- तेरहवीं शताब्दी के इतिहासकार फार-ए मुदब्बिर ने लिखा है।
- बिना सैनिकों के राजा का कार्य नहीं चल सकता। सैनिक वेतन के बिना नहीं रह सकते। वेतन किसानों से एकत्रित राजस्व से आता है। लेकिन किसान भी राजस्व का भुगतान तभी कर पाएंगे जब वे सुखी और प्रसन्न होंगे। यह तभी हो सकता है जब राजा न्याय और ईमानदार प्रशासन को बढ़ावा दे।
रज़िया
1236 में सुल्तान इल्तुतमिश की पुत्री रजिया गद्दी पर बैठी। मिन्हाज-ए-सिराज, उस युग के इतिहासकार ने स्वीकार किया कि वह अपने सभी भाइयों की तुलना में अधिक सक्षम और सक्षम थी, लेकिन फिर भी, वह एक रानी को शासक के रूप में पहचानने में सक्षम नहीं था। दरबारी भी स्वतंत्र रूप से शासन करने के उसके प्रयासों से खुश नहीं थे। 1240 में उन्हें सिंहासन से हटा दिया गया था।
रज़िया ने अपने शिलालेखों/अभिलेखों और सिक्कों पर लिखा है कि वह सुल्तान इल्तुतमिश की बेटी थी।
आधुनिक आंध्र प्रदेश के वारंगल क्षेत्र पर कभी काकतीय राजवंश का शासन था। रज़िया का व्यवहार उस वंश की रानी रुद्रम्मा देवी (1262-1289) के व्यवहार से सर्वथा विपरीत था। रुद्रम्मा देवी ने अपने अभिलेखों में पुरुषो के रूप में अपना नाम लिखकर पुरुष होने का भ्रम पैदा किया था। एक और मजबूत महिला कश्मीर की रानी दिद्दा (980-1003) थी। उसका नाम ‘दीदी’ (बड़ी बहन) से निकला है।
- गैरिसनों – पहरेदार सैनिकों की टुकड़ियों को बुलाया जाता था।
- गैरिसन शहर – एक किलेबंद बस्ती हुआ करती थी जहाँ सैनिक रहते थे।
- भीतरी प्रदेश – किसी शहर या बंदरगाह के आसपास का क्षेत्र जो उस शहर को सामान और सेवाओं की आपूर्ति करता था।
दिल्ली सल्तनत का विस्तार
खिलजी और तुगलक वंश
- दक्षिण भारत के उद्देश्य से सैन्य अभियान अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल के दौरान शुरू हुए और ये अभियान मुहम्मद तुगलक के समय में अपने चरम पर पहुंच गए।
- मुहम्मद तुगलक के शासनकाल के अंत तक, उपमहाद्वीप का एक विशाल क्षेत्र उसके युद्ध अभियान के अंतर्गत आ गया था।
- दिल्ली के शुरुआती सुल्तानों, विशेष रूप से इल्तुतमिश ने सामंतों और जमींदारों के बजाय अपने विशेष दासों को सूबेदार के रूप में नियुक्त करना पसंद किया। इन गुलामों को फारसी में बंदगान कहा जाता था और
- इन्हें सैन्य सेवा के लिए खरीदा जाता था। उन्हें राज्य में कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक पदों पर आसीन होने के लिए सावधानीपूर्वक प्रशिक्षित किया गया था।
- फारसी तवारीख के लेखकों ने ‘निम्न जातियों’ के लोगों को उच्च पदों पर रखने के लिए दिल्ली के सुल्तानों की आलोचना की है।
- अलाउद्दीन खलजी के शासन काल में राज्य ने भू-राजस्व के निर्धारण और संग्रहण के कार्य को अपने नियंत्रण में ले लिया। स्थानीय रईसों से कर लगाने का अधिकार छीन लिया गया, लेकिन उन्हें खुद भी कर देने के लिए मजबूर किया गया। सुल्तान के प्रशासक भूमि की माप और हिसाब-किताब बहुत सावधानी से रखते थे।
उस समय तीन तरह के कर हुआ करते थे |
- कृषि पर कर (जिसे खराज कहा जाता था और जो किसान की उपज का लगभग 50% होता था )
- मवेशियों पर कर
- घरों पर कर
- इब्न बतूता चौदहवीं शताब्दी में अफ्रीकी देश मोरक्को से भारत आया था।
- कुव्वत अल-इस्लाम मस्जिद और इसकी मीनारें बारहवीं शताब्दी के अंतिम दशक में बनाई गई थीं। यह जामा मस्जिद दिल्ली के सुल्तानों द्वारा निर्मित पहले शहर में स्थित है। इतिहास में इस शहर को देहली-ए कुना (पुराना शहर) कहा गया है।
इल्तुतमिश और अलाउद्दीन खलजी ने इस मस्जिद का और विस्तार किया। मीनार का निर्माण तीन सुल्तानों- कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश और फिरोज शाह तुगलक ने करवाया था।
चंगेज खान के नेतृत्व में मंगोलों ने 1219 में उत्तर-पूर्वी ईरान में Transoxiana (आधुनिक उज्बेकिस्तान) पर आक्रमण किया और इसके तुरंत बाद दिल्ली सल्तनत पर हमला हुआ। अलाउद्दीन खलजी और मुहम्मद तुगलक के शुरुआती शासनकाल के दौरान दिल्ली पर मंगोलों के हमले बढ़ गए। इस कारण दोनों सुल्तानों को एक विशाल स्थानीय सेना खड़ी करनी पड़ी।
मंगोलो के आक्रमण का सामना करने के अलाउद्दीन खिलजी द्वारा उठाए गए महत्वपूर्ण कदम
- अलाउद्दीन खलजी ने अपने सैनिकों के लिए सिरी नामक एक नया गैरीसन शहर बसाया।
- अलाउद्दीन ने इक्ता के बदले सैनिकों को भुगतान करने का निर्णय लिया।
- सैनिकों को खिलाने की समस्या को दूर करने के लिए किसानों की उपज का 50% कर के रूप में तय किया गया था।
- अलाउद्दीन के प्रशासनिक उपाय सफल रहे, और इतिहासकारों ने कीमतों में कमी और बाजार में माल की कुशल आपूर्ति के लिए उसके शासनकाल की प्रशंसा की है।
- उसने मंगोल आक्रमणों के खतरे का भी सफलतापूर्वक सामना किया।
मंगोलो के आक्रमण का सामना करने के मुहम्मद तुगलक द्वारा उठाए गए महत्वपूर्ण कदम
- एक नया गैरीसन शहर बनाने के बजाय, दिल्ली के चार शहरों में से सबसे पुराने, देहली-ए कुहना को खाली कर दिया गया था और वहां एक सैन्य छावनी बनाई गई थी।
- सेना को खिलाने के लिए उसी क्षेत्र से खाद्यान्न एकत्र किया जाता था। लेकिन बड़ी संख्या में सैनिकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए सुल्तान ने अतिरिक्त कर भी लगाए।
- मुहम्मद तुगलक भी अपने सैनिकों को नकद वेतन देता था। लेकिन उन्होंने कीमतों को नियंत्रित करने के बजाय ‘सांकेतिक’ (प्रतीकात्मक) मुद्रा का चलन शुरू किया। ये सिक्के धातु के बने थे लेकिन सोने और चांदी के नहीं बल्कि सस्ती धातु के।
- मुहम्मद तुगलक द्वारा उठाए गए प्रशासनिक कदम अत्यंत असफल रहे। कश्मीर पर उसका आक्रमण पूरी तरह विफल रहा।
- सल्तनत के इतिहास में पहली बार, दिल्ली के एक सुल्तान ने मंगोल क्षेत्र को जीतने के लिए एक अभियान की योजना बनाई। जबकि अलाउद्दीन खिलजी का जोर रक्षा पर था, मुहम्मद तुगलक द्वारा उठाए गए कदम मंगोलों के खिलाफ एक सैन्य हमले की योजना का हिस्सा थे।
शेरशाह सूरी
- शेरशाह सूरी (1540-1545) ने बिहार में अपने चाचा के एक छोटे-से इलाके के प्रबंधक के रूप में काम शुरू किया था और आगे चलकर उसने मुग़ल सम्राट हुमायूँ तक को दी और परास्त किया। शेरशाह दिल्ली पर अधिकार करके स्वयं अपना राजवंश स्थापित किया।
‘तीन श्रेणियां’, ‘ईश्वरीय शांति, नाइट और धर्मयुद्ध
(‘The Three Ranks’, ‘Divine Peace, Knight and Crusade)
- तीन श्रेणियों का विचार पहली बार फ्रांस में ग्यारहवीं शताब्दी की शुरुआत में तैयार किया गया था। इसके अनुसार समाज को तीन वर्गों में बांटा गया था- प्रार्थना वर्ग, लड़ाकू वर्ग और कृषक वर्ग। तीन वर्गों में समाज के इस विभाजन को ईसाई धर्म का भी समर्थन प्राप्त था।
- इस मंडल से योद्धाओं का एक नया दल भी उभरा। इन योद्धाओं को ‘शूरवीर’ कहा जाता था। शूरवीरों से धर्म और ईश्वर की सेवा में समर्पित योद्धा होने की अपेक्षा की जाती थी। कोशिश इन योद्धाओं को आपसी लड़ाई से हटाने और उन मुसलमानों के खिलाफ लड़ने के लिए भेजने की थी जिन्होंने यरूशलेम शहर पर कब्जा कर लिया था। इस प्रयास के परिणामस्वरूप कई सैन्य अभियान हुए, जिन्हें ‘धर्मयुद्ध’ के नाम से जाना जाने लगा।
मुगल साम्रज्य
मुग़ल दो महान शासक राजवंशों के वंशज थे। अपनी माता की ओर से वह मंगोल शासक चंगेज़ खान का उत्तराधिकारी था। अपने पिता की ओर से, वह ईरान, इराक और वर्तमान तुर्की के शासक तैमूर के वंशज थे। लेकिन मुगल अपने को मुगल या मंगोल कहलाना पसंद नहीं करते थे। ऐसा इसलिए था क्योंकि चंगेज खान से जुड़ी यादें सैकड़ों लोगों के नरसंहार से जुड़ी थीं। दूसरी ओर, मुगलों को तैमूर के वंशज होने का गर्व था। क्योंकि उनके इस महान पूर्वज ने 1398 में दिल्ली पर कब्जा कर लिया था।
- मुगलों ने राजत्व को जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में दावा किया।
मुगल सैन्य अभियान
- मुगल शासक बाबर केवल बारह वर्ष का था जब उसे मंगोलों की एक अन्य शाखा, उज़बेकों के आक्रमण के कारण अपना पैतृक सिंहासन छोड़ना पड़ा। कई वर्षों तक भटकने के बाद, उसने 1504 में काबुल पर कब्जा कर लिया। उसने 1526 में पानीपत में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराया और दिल्ली और आगरा पर कब्जा कर लिया।
- तोपों और तोपों का पहली बार उपयोग सोलहवीं शताब्दी में युद्ध में किया गया था। पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर ने इनका प्रभावशाली ढंग से प्रयोग किया।
- युद्ध में इस्तेमाल होने वाली बारूद की तकनीक को भारत में 14वीं शताब्दी में लाया गया था। यह पहली बार गुजरात, मालवा और दक्कन जैसे क्षेत्रों में आग्नेयास्त्रों के लिए इस्तेमाल किया गया था और 16 वीं शताब्दी की शुरुआत में बाबर द्वारा इसका इस्तेमाल किया गया था।
मुगल सम्राट
प्रमुख अभियान और घटनाएँ
बाबर 1526 – 1530
- बाबर ने 1526 में पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी और उसके अफगान समर्थकों को हराया।
- राणा सांगा ने 1527 में खानवा में राजपूत राजाओं और उनके समर्थकों को हराया।
- 1528 में चंदेरी में राजपूतों को हराया।
- अपनी मृत्यु से पहले दिल्ली और आगरा में मुगल नियंत्रण स्थापित किया।
हुमायूँ 1530-1540 एवं 1555 – 1556
- हुमायूँ ने अपने पिता की वसीयत के अनुसार संपत्ति का बँटवारा किया। प्रत्येक भाई को एक प्रांत मिला। अपने भाई मिर्ज़ा कामरान की महत्वाकांक्षाओं के कारण हुमायूँ को उसके अफगान प्रतिद्वंद्वियों से हार का सामना करना पड़ा। शेर खान ने हुमायूँ को दो बार हराया – 1539 में चौसा में और 1540 में कन्नौज में। इन पराजयों ने उन्हें ईरान भागने पर मजबूर कर दिया।
- हुमायूँ ने ईरान में सफ़वीद शाह की सहायता ली। उसने 1555 में दिल्ली पर पुनः कब्जा कर लिया लेकिन अगले वर्ष उसी इमारत में एक दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गई।
अकबर 1556-1605
- अकबर 13 साल की छोटी उम्र में बादशाह बना। अकबर के साम्राज्य का विस्तार 1585-1605 के बीच हुआ। उत्तर पश्चिम में अभियान चलाए गए। सफाविद हार गए और कंधार पर कब्जा कर लिया गया और कश्मीर पर भी कब्जा कर लिया गया। मिर्जा हकीम की मृत्यु के बाद उसने काबुल को भी अपने राज्य में शामिल कर लिया।
- 1570 में, जब अकबर फतेहपुर सीकरी में था, उसने उलेमा, ब्राह्मणों, जेसुइट पुजारियों (जो रोमन कैथोलिक थे) और पारसी धर्म के अनुयायियों के साथ धर्म के मामलों पर चर्चा करना शुरू किया। ये चर्चा इबादतखाना में हुई।
- इस चर्चा से अकबर को समझ में आया कि जो विद्वान धार्मिक कर्मकांडों और धर्मांधता पर जोर देते हैं, वे प्राय: धर्मांध होते हैं। उनकी शिक्षाएँ विषयों में विभाजन और वैमनस्य पैदा करती हैं। इन अनुभवों ने अकबर को सुलह-ए-कुल या ‘हर जगह शांति’ के विचार के लिए प्रेरित किया।
- धर्मांधता एक ऐसी व्याख्या या कथन था जिसे बिना प्रश्न किए ही उसे सत्तात्मक बताकर स्वीकार किए जाने की अपेक्षा की जाती थी।
- अकबर द्वारा निर्मित आगरा किले के निर्माण के लिए 2,000 पत्थर काटने वाले, 2,000 सीमेंट और चूना बनाने वाले और 8,000 मजदूरों की आवश्यकता थी।
जहाँगीर 1605-1627
- जहाँगीर ने अकबर के सैन्य अभियानों को आगे बढ़ाया। मेवाड़ के सिसोदिया शासक अमर सिंह ने मुग़लों की सेवा स्वीकार की। इसके बाद सिक्खों, अहोमों और अहमदनगर के खिलाफ अभियान चलाए गए, पूर्णतः सफल नहीं हुए। जहाँगीर के शासन के अंतिम वर्षों में राजकुमार खुर्रम, जो बाद में सम्राट शाहजहाँ कहलाया ने विद्रोह किया।
- मेहरुन्निसा ने 1611 में जहाँगीर से विवाह किया और उसे नूरजहाँ का खिताब मिला | नूरजहाँ हमेशा जहाँगीर के प्रति अधिक बफादार रही |
शाहजहाँ 1627-1658
- दक्कन में शाहजहाँ का अभियान जारी रहा। 1657-58 में उत्तराधिकार को लेकर शाहजहाँ के बेटों के बीच झगड़ा शुरू हो गया। इसमें औरंगजेब की जीत हुई और दारा शिकोह समेत उसके तीन भाइयों को मौत के घाट उतार दिया गया। शाहजहाँ जीवन भर आगरा में कैद रहा।
औरंगजेब 1658-1707
- 1663 में अहोम उत्तर पूर्व में हार गए लेकिन 1680 में फिर से विद्रोह कर दिया। उत्तर पश्चिम में युसुफियों और सिखों के खिलाफ अभियानों को अस्थायी सफलता मिली।
- मराठा सरदार शिवाजी के खिलाफ मुगल अभियान शुरू में सफल रहे। लेकिन औरंगजेब ने शिवाजी का अपमान किया। और शिवाजी आगरा की मुगल जेल से भाग निकले। स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित करने के बाद उसने पुनः मुगलों के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। राजकुमार अकबर ने औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह किया जिसमें उन्हें मराठों और दक्कन सल्तनतों का समर्थन प्राप्त था। अकबर के विद्रोह के बाद औरंगजेब ने दक्कन के शासकों के खिलाफ सेना भेजी। 1685 में बीजापुर और 1687 में गोलकुंडा पर मुगलों ने कब्जा कर लिया था। औरंगज़ेब को उत्तर भारत में सिखों, जाटों और सतनामियों, उत्तर पूर्व में अहोमों और दक्कन में मराठों के विद्रोह का सामना करना पड़ा। उनकी मृत्यु के बाद, उत्तराधिकार के लिए युद्ध शुरू हो गया।
उत्तराधिकार की मुगल परम्पराएं
मुग़ल ज्येष्ठाधिकार (primogeniture) के नियम में विश्वास नहीं करते थे जिसमें ज्येष्ठ पुत्र अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकारी होता था। इसके विपरीत, उत्तराधिकार में वे सहदायाद की मुग़ल और तैमूर वंशों की प्रथा को अपनाते थे जिसमें उत्तराधिकार का विभाजन समस्त पुत्रों में कर दिया जाता था।
मनसबदार
‘मनसबदार’ शब्द का प्रयोग ऐसे व्यक्तियों के लिए होता था, जिन्हें कोई मनसब यानी कोई सरकारी हैसियत अथवा पद मिलता था। यह मुग़लों द्वारा चलाई गई श्रेणी व्यवस्था थी, जिसके जरिए
- पद
- वेतन
- सैन्य उत्तरदायित्व निर्धारित किए जाते थे।
मनसबदार अपना वेतन राजस्व एकत्रित करने वाली भूमि के रूप में पाते थे, जिन्हें जागीर कहते थे और जो तकरीबन ‘इक्ताओं’ के समान थीं।
जात की श्रेणियाँ
- 5,000 जात वाले अभिजातों का दर्जा 1,000 जात वाले अभिजातों से ऊँचा था । अकबर के शासन काल में 29 ऐसे मनसबदार थे जो 5,000 जात की पदवी के थे। औरंगजेब के शासनकाल तक ऐसे मनसबदारों की संख्या 79 हो गई।
जब्त और जमीदार
- मुगलों की आय का मुख्य स्रोत किसानों की उपज से प्राप्त राजस्व था। अधिकांश स्थानों पर, किसानों ने राजस्व का भुगतान ग्रामीण अभिजात वर्ग यानी मुखिया या स्थानीय सरदारों के माध्यम से किया। सभी बिचौलियों के लिए, चाहे वे स्थानीय ग्राम प्रधान हों या शक्तिशाली सरदार, मुगल एक ही शब्द का प्रयोग करते थे – जमींदार।
- अकबर के राजस्व मंत्री टोडर मल ने दस साल (1570-1580) की अवधि के लिए कृषि उपज, कीमतों और कृषि भूमि को रिकॉर्ड किया। सावधानीपूर्वक सर्वेक्षण किया। इन आँकड़ों के आधार पर प्रत्येक फसल पर नकद कर (राजस्व) निर्धारित किया गया। प्रत्येक सूबे (प्रांत) को राजस्व मंडलों में विभाजित किया गया था और प्रत्येक के पास प्रत्येक फसल के लिए राजस्व दरों की एक अलग सूची थी। राजस्व प्राप्त करने की इस प्रणाली को ‘ज़ब्त’ कहा जाता था।
अकबर नामा और आइने -अकबरी
- अकबर ने अपने करीबी मित्र और दरबारी अबुल फ़जल को आदेश दिया कि वह उसके शासनकाल का इतिहास लिखे। अबुल फ़जल ने यह इतिहास तीन जिल्दों में लिखा और इसका शीर्षक है अकबरनामा | पहली जिल्द में अकबर के पूर्वजों का बयान है और दूसरी जिल्द में अकबर के शासनकाल की घटनाओं का विवरण देती है। तीसरी जिल्द आइने अकबरी है। इसमें अकबर के प्रशासन, घराने, सेना, राजस्व और साम्राज्य के भूगोल का ब्यौरा मिलता है। इसमें समकालीन भारत के लोगों की परंपराओं और संस्कृतियों का भी विस्तृत वर्णन है । आइने अकबरी का सब से रोचक आयाम है, विविध प्रकार की चीजों फ़सलों, पैदावार, कीमतों, मजदूरी और राजस्व का सांख्यिकीय विवरण |
- प्रशासन के मुख्य अभिलक्षण अकबर ने निर्धारित किए थे और इनका विस्तृत वर्णन अबुल फ़जल की अकबरनामा, विशेषकर आइने अकबरी में मिलता है। अबुल फ़जल के अनुसार साम्राज्य कई प्रांतों में बँटा हुआ था, जिन्हें ‘सूबा’ कहा जाता था। सूबों के प्रशासक ‘सूबेदार’ कहलाते थे, जो राजनैतिक तथा सैनिक, दोनों प्रकार के कार्यों का निर्वाह करते थे।
- प्रत्येक प्रांत में एक वित्तीय अधिकारी भी होता था जो ‘दीवान’ कहलाता था ।
सुलह-ए-कुल
- अकबर की सुलह-ए-कुल की नीति का उनके पुत्र इस प्रकार वर्णन किया है: ईश्वरीय अनुकंपा के विस्तृत आँचल में सभी वर्गों और सभी धर्मों के अनुयायियों की एक जगह है। इसलिए उसके विशाल साम्राज्य में, जिसकी चारों ओर की सीमाएँ केवल समुद्र से ही निर्धारित होती थी विरोधी धर्मों के अनुयायियों और तरह-तरह के अच्छे-बुरे विचारों के लिए जगह थी। यहाँ असहिष्णुता का मार्ग बंद था। यहाँ सुन्नी और शिया एक ही मसजिद में इकट्ठे होते थे और ईसाई और यहूदी एक ही गिरजे में प्रार्थना करते थे। उसने सुसंगत तरीके से ‘सार्विक शांति’ (सलह-ए-कल) के सिद्धांत का पालन किया ।
कुतुबमीनार
- कुतुबमीनार पाँच मंजिली इमारत है। अभिलेखों की पट्टियां इसके पहले छज्जे के नीचे हैं। इस इमारत की पहली मंजिल का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक ने लगभग 1199 में करवाया था। तथा शेष मंजिलों का निर्माण
1229 के आस-पास इल्तुतमिश द्वारा करवाया गया। कई वर्षों में यह इमारत आँधी- तूफ़ान तथा भूकंप की वजह से क्षतिग्रस्त हो गई थी। अलाउद्दीन खलजी, मुहम्मद तुग़लक़, फ़िरोज़ शाह तुगलक तथा इब्राहिम लोदी ने इसकी मरम्मत करवाई । - राजस्थान के बूंदी में स्थित रानीजी की बावड़ी, उन पचास बावड़ियों में सबसे बड़ी थी जिसका निर्माण पानी की आवश्यकता की पूर्ति के लिए किया गया। अपनी स्थापत्य सुन्दरता के लिए विख्यात इस बावड़ी का निर्माण 1699 ईसवी में रानी नाथावत जी ने, जो बूंदी के राजा अनिरुद्ध सिंह की रानी थी, किया था।
- शिव की स्तुति में बनाए गए कंदरिया महादेव मंदिर का निर्माण चंदेल राजवंश राजा धंगदेव द्वारा 999 में किया गया था ।
- खजुराहो समूह में राजकीय मदिर सम्मिलित थे जहाँ सामान्य जनमानस को जाने की अनुमति नहीं थी। ये मंदिर सुपरिष्कृत उत्कीर्णित मूर्तियों से अलंकृत थे।
अभियांत्रिकी कौशल तथा निर्माण कार्य
(Engineering Skills and Construction Work)
तंजावूर के राजराजेश्वर मंदिर
- तंजावुर में राजराजेश्वर मंदिर का शिखर उस समय के मंदिरों में सबसे ऊंचा था। 90 टन के पत्थर को शिखर के शीर्ष तक ले जाने के लिए, वास्तुकारों ने मंदिर के शीर्ष तक पहुँचने के लिए 4 किमी की चढ़ाई की। ताकि चढ़ाई ज्यादा खड़ी न हो, फिर इस रास्ते पर भारी पत्थरों को रोलर्स द्वारा चढ़ाया गया।
- मंदिर के पास के एक गाँव को चार लाम कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है चढाई वाले रास्ते का गाँव।
- एक शिलालेख इंगित करता है कि इस मंदिर का निर्माण राजा राजदेव ने अपने देवता राजराजेश्वरम की पूजा के लिए किया था।
- तंजावुर, चोल राजाओं की राजधानी थी। कावेरी नदी तंजावुर शहर के पास बहती है। तंजावुर का निकटतम शहर उरैयूर है। तंजावुर भी मंदिरों के शहर का एक उदाहरण है। मंदिर नगर शहरीकरण के एक बहुत ही महत्वपूर्ण पैटर्न का प्रतिनिधित्व करते हैं। शहरीकरण शहरों के विकास की प्रक्रिया है।
मंदिरों, मसजिदों और हौजों का निर्माण
- मुस्लिम सुल्तानों और बादशाहों ने खुद को ईश्वर का अवतार होने का दावा नहीं किया, लेकिन फारसी दरबार के इतिहास में सुल्तान को ‘अल्लाह की छाया’ के रूप में वर्णित किया गया है। दिल्ली की एक मस्जिद के एक शिलालेख से पता चलता है कि अल्लाह ने अलाउद्दीन को शासक के रूप में चुना था क्योंकि उसके पास अतीत के महान विधायकों, मूसा और सुलेमान की विशेषताएं थीं। सबसे बड़ा वास्तुकार स्वयं अल्लाह था। उन्होंने अराजकता को दूर करके और व्यवस्था और संतुलन स्थापित करके दुनिया का निर्माण किया।
- सुलतान इल्तुतमिश ने देहली- ए- कुहना के एकदम निकट एक विशाल तालाब का निर्माण करके व्यापक सम्मान प्राप्त किया। इस विशा जलाशय को हौज़-ए-सुल्तानी अथवा ‘राजा का तालाब’ कहा जाता था।
- फ़ारसी शब्द, आबाद और आबादी ‘आब’ शब्द से निकले हैं जिसका अर्थ है पानी। आबाद शब्द उस जगह के लिए इस्तेमाल होता हैं, जहाँ बसावट हो । इसका एक अन्य अर्थ खुशहाली भी है। आबादी का जनसंख्या एवं समृद्धि दोनों ही है।
- राजा मंदिरो का निर्माण अपनी, शक्ति, धन-संपदा और ईश्वर के प्रति निष्ठा के प्रदर्शन हेतु करते थे। ऐसे में यह बात आश्चर्यजनक नहीं लगती है कि जब उन्होंने एक दूसरे के राज्यों पर आक्रमण किया, तो उन्होंने प्रायः ऐसी इमारतों पर निशाना साधा।
- नवीं शताब्दी के आरंभ में जब पांड्यन राजा श्रीमर श्रीवल्लभ ने श्रीलंका पर आक्रमण कर राजा सेन प्रथम ( 831-851) को पराजित किया था, उसके विषय में बौद्ध भिक्षु व इतिहासकार धम्मकित्ति ने लिखा है कि, “सारी बहुमूल्य चीजें वह ले गया… रत्न महल में रखी स्वर्ण की बनी बुद्ध की मूर्ति… और विभिन्न मठों में रखी सोने की प्रतिमाओं – इन सभी को उसने ज़ब्त कर लिया । “
- अगले सिंहली शासक सेन द्वितीय ने अपने सेनापति को, पांड्यों की राजधानी मदुरई पर आक्रमण करने का आदेश दिया। बौद्ध इतिहासकार ने लिखा है कि इस अभिय में बुद्ध की स्वर्ण मूर्ति को ढूंढ निकालने तथा वापस लाने हेतु महत्त्वपूर्ण प्रयास किए गए।
- ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में चोल राजा राजेंद्र प्रथम ने अपनी राजधानी में शिव मंदिर का निर्माण करवाया था। उसने पराजित शासकों से ज़ब्त की गई उत्कृष्ट प्रतिमाओं से इसे भर दिया। इनमे निम्न चीजें सम्मिलित थीं: चालुक्यों से प्राप्त एक सूर्य पीठिका, एक गणेश मूर्ति तथा दुर्गा की कई मूत्तियाँ, पूर्वी चालुक्यों से प्राप्त क नंदी मूर्ति, उड़ीसा के कलिंगों से प्राप्त भैरव (शिव का एक रूप ) तथा भैरवी की एक प्रतिमा तथा बंगाल के पालों से प्राप्त काली की मूर्ति ।
- मंदिर के कर्ता-धर्ता मंदिर के धन को व्यापार एवं साहूकारी में लगाते थे। समय के साथ, बड़ी संख्या में पुरोहित – पुजारी, कामगार, शिल्पी, व्यापारी आदि मंदिर तथा उसके दर्शनार्थियों एवं तीर्थयात्रियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मंदिर के आस-पास बसते गए। इस प्रकार मंदिर नगरों का विकास हुआ। जैसे-मध्य प्रदेश में भिल्लस्वामिन (भीलसा या विदिशा) और गुजरात सोमनाथ। कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण मंदिर नगर – तमिलनाडु में कांचीपुरम तथा मदुरै और आंध्र प्रदेश में तिरुपति हैं।
- तीर्थस्थल भी धीरे-धीरे शहरों में विकसित हो गए। वृंदावन (उत्तर प्रदेश) और तिरुवन्नामलाई (तमिलनाडु) ऐसे शहरों के दो उदाहरण हैं। अजमेर (राजस्थान), बारहवीं शताब्दी में चौहान राजाओं की राजधानी थी और बाद में मुगलों के शासन में ‘सूबा’ का मुख्यालय बना। यह शहर धार्मिक सह-अस्तित्व का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। प्रसिद्ध सूफी संत ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती 12वीं शताब्दी में यहां आकर बसे थे। अजमेर के पास पुष्कर सरोवर है, जहाँ प्राचीन काल से तीर्थयात्री आते रहे हैं।
बाग, मकबरे तथा किले
- मुगलों के अधीन वास्तुकला अधिक जटिल हो गई। बाबर, हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर और विशेष रूप से शाहजहाँ ने साहित्य, कला और वास्तुकला में व्यक्तिगत रुचि ली। बाबर ने अपनी आत्मकथा में औपचारिक उद्यानों की योजनाओं और उनके निर्माण में अपनी रुचि का वर्णन किया है।
- हुमायूं का मकबरा लाल बलुआ पत्थर से बना है और इसके किनारे सफेद संगमरमर से बने हैं।
- शाहजहाँ बादशाह के सिंहासन के पीछे पितरा – दूरा के जड़ाऊ काम की एक श्रृंखला बनाई गई थी, जिसमें पौराणिक यूनानी देवता आर्फियस को वीणा बजाते हुए चित्रित किया गया था। ऐसा माना जाता था कि आर्फियस का संगीत आक्रामक जानवरों को भी शांत कर सकता है और वे शांतिपूर्वक एक-दूसरे के साथ रहने लगते हैं।
- शासन के आरंभिक वर्षों में शाहजहाँ की राजधानी आगरा थी।
- शाहजहां ने आगरा का ताजमहल का निर्माण कराया जिसका निर्माण कार्य 1643 में पूरा हुआ |
- पितरा-दूरा – उत्कीर्णित संगमरमर अथवा बलुआ पत्थर पर रंगीन, ठोस पत्थरों को दबाकर बनाए गए सुंदर तथा अलंकृत नमूने |
- अकबर की राजधानी फतेहपुर सीकरी थी। फतेहपुर सीकरी की कई इमारतों पर गुजरात व मालवा की वास्तुकलात्मक शैलियों का प्रभाव दिखाई देता है।
- जोधाबाई महल फतेहपुर सीकरी में है। ये गुजरात क्षेत्र की स्थापत्य परंपराओं से प्रभावित हैं।
चर्च
- बारहवीं शताब्दी से फ्रांस में आरंभिक भवनों की तुलना में अधिक ऊँचे व हलके चर्चों के निर्माण के प्रयास शुरू हुए। वास्तुकला की यह शैली ‘गोथिक’ नाम से जानी जाती है। इस शैली की विशिष्टताएँ हैं- नुकीले ऊँचे मेहराब, रंगीन काँच का प्रयोग, जिसमें प्राय: बाइबिल से लिए गए दृश्यों का चित्रण है तथा उड़ते हुए पुश्ते। दूर से ही दिखने वाली ऊँची मीनारें और घंटी वाले बुर्ज बाद में चर्च से जुड़े ।
काँसा (Bronze), घंटा-धातु और ‘लुप्तमोम’ (lost wax) तकनीक
- काँसा एक मिश्रधातु होती है, जो ताँबे और राँगे (टिन) के मेल से बनती है। घंटा-धातु गे का अनुपात किसी भी अन्य किस्म के काँसे से अधिक होता है। यह घंटे जैसी ध्वनि उत्पन्न करती है। चोलकालीन कांस्य मर्तियाँ ‘लुप्तमोम’ तकनीक से बनाई जाती थीं।
व्यापारियों का संघ
- व्यापारियों को अनेक राज्यों तथा जंगलों से होकर जरना पड़ता था। इसलिए वे आमतौर पर काफिले बनाकर एक साथ यात्रा करते थे और अपने हितों की रक्षा के लिए व्यापार संघ (गिल्ड) बनाते थे।
- दक्षिण भारत में आठवीं शताब्दी और परवर्ती काल में ऐसे संघ थे। उनमें सबसे प्रसिद्ध ‘मणिग्रामम्’ और ‘नानादेशी’ थे।
- चेट्टियार और मारवाड़ी ओसवाल जैसे समुदाय आगे चलकर देश के प्रधान व्यापारी समूह बन गए। गुजराती व्यापारियों में बनिया और मुस्लिम बोहरा दोनों समुदाय शमिल थे।
- पश्चिमी तट के नगरों में अरबी, फारसी, चीनी, यहूदी और सीरियाई ईसाई बस गए थे। लाल सागर के बंदरगाहों में बेचे जाने वाले भारतीय मसाले और कपड़े इतालवी व्यापारियों द्वारा खरीदे जाते थे और वहाँ से वे उन्हें आगे यूरोपीय बाजारों में पहुँचाते थे। उनसे व्यापार में बहुत लाभ होता था । उष्णकटिबंधीय जलवायु में उगाए जाने वाले मसाले (कालीमिर्च, दालचीनी, जायफल, सोंठ आदि) यूरोपीय व्यंजनों के महत्त्वपूर्ण अंग बन गए थे
- काबुल और कांधार सुप्रसिद्ध रेशम मार्ग से जुड़े हुए थे। साथ ही घोड़ों का व्यापार भी मुख्य रूप से इसी मार्ग से होता था ।
नगरों में शिल्प
(Crafts in Towns)
- बीदर के शिल्पकार ताँबे तथा चाँदी में जड़ाई के काम के लिए इतने अधिक प्रसिद्ध थे कि इस शिल्प का नाम ही ‘बीदरी’ पड़ गया।
- सालियार या कैक्कोलार जैसे बुनकर भी समृद्धिशाली समुदाय बन गए थे और वे मंदिरों को भारी दान-दक्षिणा दिया करते थे।
हम्पी
- हम्पी शहर कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों की घाटी में स्थित है। यह शहर 1336 में स्थापित विजयनगर साम्राज्य का केंद्र था। हम्पी के शानदार खंडहर बताते हैं कि शहर की किलेबंदी उच्च स्तर की थी। किले की दीवारों के निर्माण में कहीं भी मोर्टार और चूने जैसे बंधन एजेंट का उपयोग नहीं किया गया था और पत्थरों को आपस में जोड़ा गया था।
- अपने शासनकाल के दौरान, विजयनगर के शासकों ने जलाशयों और नहरों के निर्माण में बहुत रुचि ली। मालदेवी नदी पर 1.37 किमी लंबे मिट्टी के बांध के साथ अनंतराज सागर जलाशय का निर्माण किया गया था।
- कृष्णदेव राय ने विजयनगर के पास एक बड़ी झील बनाने के लिए दो पहाड़ियों के बीच एक विशाल पत्थर का बांध बनाया, जहाँ से जलसेतुओं और नहरों द्वारा बगीचों और खेतों की सिंचाई के लिए पानी लाया जाता था।
- गोलकोंडा, बीजापुर, अहमदनगर, बरार और बीदर के शासक दक्खनी सुल्तानों के हाथों विजयनगर की हार के बाद 1565 में हम्पी को नष्ट कर दिया गया था।
सूरत
- सूरत ओरमुज़ की खाड़ी से होकर पश्चिमी एशिया के साथ व्यापार करने के लिए मुख्य द्वार था। सूरत को मक्का का प्रस्थान द्वार भी कहा जाता था, क्योंकि बहुत- से हजयात्री, जहाज़ से यहीं से रवाना होते थे।
- सूरत एक सर्वदेशीय नगर था, जहाँ सभी जातियों और धर्मों के लोग रहते थे। सत्रहवीं शताब्दी में वहाँ पुर्तगालियों, डचों और अंग्रेजों के कारखाने एवं मालगोदाम थे। अंग्रेज़ इतिहासकार ओविंगटन ने 1689 में सूरत बंदरगाह का वर्णन करते हुए लिखा है कि किसी भी एक वक्त पर भिन्न-भिन्न देशों के औसतन एक सौ जहाज़ इस बंदरगाह पर लंगर डाले खड़े देखे जा सकते थे।
- सूरत के वस्त्र अपने सुनहरे गोटा – किनारियों (जरी) के लिए प्रसिद्ध थे और उनके लिए पश्चिम एशिया, अफ्रीका और यूरोप में बाजार उपलब्ध थे।
- सूरत से जारी की गई हुंडियों (एक ऐसा दस्तावेज़, जिसमें एक व्यक्ति द्वारा जमा कराई गई रकम दर्ज रहती है) को दूर-दूर तक मिस्र में काहिरा, इराक में बसरा और बेल्जियम में एंटवर्प के बाजारों में मान्यता प्राप्त थी।
- 1668 में अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी ने सूरत में अपना मुख्यालय स्थापित कर लिया था। आज सूरत एक महत्त्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्र
वाणिज्य केंद्र एक ऐसा स्थान जहाँ विभिन्न उत्पादन केंद्रों से आने वाला माल खरीदा और बेचा जाता है।
मसूलीपट्टनम
- मसूलीपट्टनम या मछलीपट्टनम नगर कृष्णा नदी के डेल्टा पर स्थित है। यह आंध्र तट का सबसे महत्वपूर्ण पतन बन गया था | मसूलीपट्टनम का किला, हॉलैंडवासियों ने बनाया था।
- अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के एक गुमाश्ते विलियम मेथवल्ड ने 1620 ई. में मसूलीपट्टनम का वर्णन किया था कि यह गोलकुंडा का मुख्य पत्तन है, जहाँ परमपूज्य ईस्ट इंडिया कंपनी अपना एजेंट रखती है। पहले यह एक गरीब मछुआरा नगर था
- गोलकुंडा के कुत्बशाही शासकों ने कपड़ों, मसालों और अन्य चीजों की बिक्री पर शाही एकाधिकार लागू किया जिससे कि वहाँ का व्यापार पूरी तरह ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में न चला जाए।
- जब कंपनी के व्यापारी, बंबई (वर्तमान मुंबई) कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) और मद्रास (वर्तमान चेन्नई) चले गए, तब मसूलीपट्टनम अपने व्यापार और समृद्धि दोनों ही खो बैठा और अठारहवीं शताब्दी के दौरान उसका अध: पतन हो गया ।
नए नगर और व्यापारी
- अठारहवीं शताब्दी में बंबई, कलकत्ता और मद्रास नगरों का उदय हुआ, जो आज प्रमुख महानगर हैं। शिल्प और वाणिज्य में बड़े-बड़े परिवर्तन आए, जब बुनकर जैसे कारीगर तथा सौदागर यूरोपीय कंपनियों द्वारा इन नए नगरों में स्थापित ‘ब्लैक टाउन्स’ में स्थानांतरित हो गए। ‘ब्लैक’ यानी देसी व्यापारियों और शिल्पकारों को इन ‘ब्लैक टाउन्स’ सीमित कर दिया गया, जबकि गोरे शासकों ने मद्रास में फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज और कलकत्ता फ़ोर्ट सेंट विलियम की शानदार कोठियों में अपने आवास बनाए ।
वास्को-डि-गामा और क्रिस्टोफ़र कोलंबस
- पंद्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय नाविकों द्वारा समुद्री खोज के अभूतपूर्व कार्य किए गए। उनमें से नाविकों को भारतीय उपमहाद्वीप तक पहुँचने और मसालों को प्राप्त करने का रास्ता खोजने की इच्छा से प्रेरित किया गया था।
- पुर्तगाली नाविक वास्को-द-गामा केप ऑफ गुड होप को छोड़कर और हिंद महासागर को पार करते हुए अटलांटिक महासागर के साथ यात्रा करके भारत पहुंचे। उसके लिए अपनी पहली यात्रा पूरी करने के लिए एक वर्ष, इससे ज्यादा समय लगा। वह 1498 में कालीकट पहुंचा और अगले वर्ष पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन लौट आया। इस यात्रा के दौरान उनके चार जहाजों में से दो नष्ट हो गए और 170 यात्रियों में से केवल 54 ही बच पाए। इन स्पष्ट खतरों के बावजूद जो मार्ग खोले गए या खोजे गए वे बहुत लाभदायक सिद्ध हुए और उसके बाद अंग्रेज, डच और फ्रांसीसी नाविक भी उनका अनुसरण करने लगे।
- भारत तक पहुँचने के लिए समुद्री मार्गों की खोज से एक और परिणाम मिला, जिसकी किसी ने आशा नहीं की थी। क्रिस्टोफर कोलंबस, एक इतालवी, ने भारत पहुंचने का रास्ता खोजने के लिए अटलांटिक महासागर के पार पश्चिम की यात्रा करने का फैसला किया। उसने सोचा कि चूंकि पृथ्वी गोल है, इसलिए वह पश्चिम से भी भारत पहुंच सकता है। वह 1492 में वेस्ट इंडीज के तट पर पहुंचे (इस भ्रम से वेस्ट इंडीज को अपना नाम मिला)। उनके बाद स्पेन और पुर्तगाल के नाविक और विजेता आए, जिन्होंने मध्य और दक्षिण अमेरिका के बड़े हिस्से पर विजय प्राप्त की, अक्सर उन क्षेत्रों में पिछली बस्तियों को नष्ट कर दिया।
जनजातियां
(TRIBES)
- समकालीन इतिहासकारों और यात्रियों ने कबीलों के बारे में बहुत कम जानकारी दी है। कुछ अपवादों को छोड़कर आदिवासी लोग भी लिखित दस्तावेज नहीं रखते थे। लेकिन समृद्ध रीति-रिवाज और वाचिक / मौखिक
- वह परंपराओं का संरक्षण करता था। ये परंपराएं प्रत्येक नई पीढ़ी को विरासत में मिली हैं। आज के इतिहासकार इन मौखिक परम्पराओं का प्रयोग कबीलों का इतिहास लिखने में करने लगे हैं।
- आदिवासी भारत के लगभग हर क्षेत्र में पाए जाते थे। किसी एक जनजाति का क्षेत्र और प्रभाव समय के साथ बदलता रहा। कुछ शक्तिशाली जनजातियों ने बड़े क्षेत्रों को नियंत्रित किया।
- पंजाब में खोखर जनजाति तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के दौरान बहुत प्रभावशाली थी। यहाँ बाद में गक्खर लोग अधिक महत्वपूर्ण हो गए। उनके प्रमुख, कमाल खान गक्खर को सम्राट अकबर द्वारा मनसबदार बनाया गया था।
- उत्तर-पश्चिम में एक और बड़ी और शक्तिशाली जनजाति थी – बलूच। ये लोग अलग-अलग मुखियाओं के साथ कई छोटे-छोटे कुलों में बंटे हुए थे। पश्चिमी हिमालय में गद्दियों की एक जनजाति हुआ करती थी।
- उपमहाद्वीप के सुदूर उत्तर-पूर्वी भाग पर भी नागाओं, अहोमों और कई अन्य जनजातियों का पूर्ण प्रभुत्व था।
- बारहवीं शताब्दी तक बिहार और झारखंड के कई क्षेत्रों में चेरा सरदारों का उदय हुआ था। सम्राट अकबर के एक प्रसिद्ध सेनापति राजा मान सिंह ने 1591 में चेरों पर हमला किया और उन्हें हरा दिया। मुगल सेना ने
- चेरों के कई किलों पर कब्जा कर लिया। इस क्षेत्र में रहने वाली महत्वपूर्ण जनजातियाँ मुंडा और संथाल थीं, हालाँकि वे उड़ीसा और बंगाल में भी रहती थीं।
- कर्नाटक और महाराष्ट्र की पहाड़ियाँ कोली, बेराड और कई अन्य जनजातियों का घर थीं। कोली गुजरात के कई इलाकों में भी रहते थे।
- भीलों की बड़ी जनजाति पश्चिमी और मध्य भारत में फैली हुई थी।
- गोंड वर्तमान छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में बड़ी संख्या में फैले हुए थे।
खानाबदोश (Nomads) और भ्रमणशील समूह (Traveling group)
- खानाबदोश घुमंतू लोग होते हैं। घुमंतू चरवाहे अपने पशुओं को लेकर दूर-दूर घूमते थे। उनका जीवन दूध और अन्य पशुचारण उत्पादों पर निर्भर था। वे खेतिहर गृहस्थों के साथ अनाज, कपड़े, बर्तन आदि के लिए ऊन, घी आदि का आदान-प्रदान भी करते थे। उनमें से बहुत से चरवाहे हैं, जो अपनी भेड़-बकरियों और गाय-बैलों के साथ एक चरागाह से दूसरे चरागाह में जाते हैं। घूमते रहते हैं।
बंजारे
- बंजारा लोग सबसे महत्त्वपूर्ण व्यापारी – खानाबदोश थे। उनका कारवाँ ‘टांडा’ कहलाता था। सुलतान अलाउद्दीन ख़िलजी बंजारों का ही इस्तेमाल नगर के बाज़ारों तक अनाज की ढुलाई के लिए करते थे।
- सत्रहवीं सदी के आरंभ में भारत आने वाले एक अंग्रेज व्यापारी, पीटर मंडी, ने बंजारों का वर्णन कियाः सुबह हमारी मुलाकात बंजारों की एक टांडा से हुई जिसमें 14,000 बैल थे। सारे पशु गेहूँ और चावल जैसे अनाजों से लदे हुए थे… ये बंजारे लोग अपनी पूरी घर-गृहस्थी – बीवी और बच्चे अपने साथ लेकर चलते हैं। एक टांडा में कई परिवार होते हैं।
गोंड
- गोंड लोग, गोंडवाना नामक विशाल वनप्रदेश में रहते थे। वे स्थानांतरीय कृषि (shifting cultivation) अर्थात् जगह बदल-बदल कर खेती करते थे। विशाल गोंड जनजाति कई छोटे-छोटे कुलों में भी बँटी हुई थी। प्रत्येक कुल का अपना राजा या राय होता था। जिस समय दिल्ली के सुलतानों की ताकत घट रही थी, उसी समय कुछ बड़े गोंड राज्य छोटे गोंड सरदारों पर हावी होने लगे थे।
- अकबर के शासनकाल के एक इतिहास अकबरनामा में उल्लिखित है कि गढ़ कटंगा के गोंड राज्य में 70,000 गाँव थे। गढ़ कटंगा के गोंड राजा अमन दास ने संग्राम शाह की उपाधि धारण की। उसके पुत्र दलपत ने महोबा के चंदेल राजपूत राजा सालबाहन की पुत्री राजकुमारी दुर्गावती से विवाह किया।
- दलपत की मृत्यु कम उम्र में ही हो गई। रानी दुर्गावती बहुत योग्य थी और उसने अपने पाँच साल के पुत्र बीर नारायण के नाम पर शासन की कमान सँभाली। उसके समय में राज्य का और अधिक विस्तार हुआ। 1565 में आसिफ़ खान के नेतृत्व में मुग़ल सेनाओं ने गढ़ कटंगा पर हमला किया। रानी दुर्गावती ने इसका जम कर सामना किया। उसकी हार हुई और उसने समर्पण करने की बजाय मर जाना बेहतर समझा। उसका पुत्र भी तुरंत बाद लड़ता हुआ मारा गया।
अहोम
- अहोम लोग मौजूदा म्यांमार से आकर तेरहवीं सदी में ब्रह्मपुत्र घाटी में आकर बस गए थे । उन्होंने भुइयाँ (भूस्वामी) लोगों की पुरानी राजनीतिक व्यवस्था का करके नए राज्य की स्थापना की। 1660 तक आते-आते वे उच्चस्तरीय बारूद और तोपों का निर्माण करने में सक्षम हो गए थे।
- अहोम लोगों को दक्षिण-पश्चिम से कई आक्रमणों का सामना करना पड़ा। 1662 में मी जुमला के नेतृत्व में मुग़लों ने अहोम राज्य पर हमला किया। इसमें अहोम लोगों की पराजय हुई।
- अहोम राज्य, बेगार पर निर्भर था। राज्य के लिए जिन लोगों से जबरन काम लिया जाता था, वे ‘पाइक’ कहलाते थे।
- अहोम समाज, कुलों में विभाजित था, जिन्हें ‘खेल’ कहा जाता था। एक खेल के नियंत्रण में प्रायः कई गाँव होते थे। किसान को अपने ग्राम समुदाय के द्वारा ज़मीन दी जाती थी। समुदाय की सहमति के बगैर राजा तक इसे वापस नहीं ले सकता था। मंगोल
मंगोल
- इतिहास में सबसे प्रसिद्ध पशुचारी और शिकारी-संग्राहक जनजाति मंगोलों की थी। वे मध्य एशिया के घास के मैदानों (स्टेपी) और थोड़ा उत्तर की ओर के वन प्रांतों में बसे हुए थे। 1206 में चंगेज़ ख़ान ने मंगोल और तुर्की जनजातियों में एकता पैदा करके उन्हें एक शक्तिशाली सैन्य बल में बदल डाला।
- अपनी मृत्यु के समय ( 1227) वह एक सुविस्तृत का शासक था। उसके उत्तराधिकारियों ने एक विशाल साम्राज्य खड़ा किया | अलग-अलग समय में इसके अंतर्गत रूस, पूर्वी यूरोप और चीन तथा मध्य का खासा बड़ा हिस्सा शामिल था। मंगोलों के पास सुसंगठित सैन्य एवं प्रशासनिक व्यवस्थाएँ थी। ये विभिन्न जातीय और धार्मिक समूहों के समर्थन पर आधारित थी |
चेर और मलयालम भाषा का विकास
- महोदयपुरम का चेर राज्य प्रायद्वीप के दक्षिणी-पश्चिमी भाग में, जो आज के केरल राज्य का एक हिस्सा है, नौवीं शताब्दी में स्थापित किया गया था। संभवतः मलयालम भाषा इस इलाके में बोली जाती थी। शासकों ने मलयालम भाषा एवं लिपि का प्रयोग अपने अभिलेखों में किया। वस्तुतः इस भाषा का प्रयोग उपमहाद्वीप के सरकारी अभिलेखों में किसी क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग के सबसे पहले उदाहरणों में से एक है।
- चौदहवीं शताब्दी का एक ग्रंथ लीला तिलकम, जो व्याकरण तथा काव्यशास्त्र विषयक है ‘मणिप्रवालम’ शैली में लिखा गया था | मणिप्रवालम का शाब्दिक अर्थ है – हीरा और मूंगा, जो यहाँ दो भाषाओं – संस्कृत तथा क्षेत्रीय भाषा के साथ-साथ प्रयोग की ओर संकेत करता है।
शासक और धर्मिक परंपराए (Rulers and Religious traditions)
- बारहवीं शताब्दी में गंग वंश के एक अत्यंत प्रतापी राजा अनंतवर्मन ने पुरी में पुरुषोत्तम जगन्नाथ (जगन्नाथ का शाब्दिक अर्थ है, दुनिया का मालिक जो विष्णु का पर्यायवाची है)। के लिए एक मंदिर बनवाने का निश्चय किया। जगन्नाथ मूलतः एक स्थानीय देवता थे, जिन्हें आगे चलकर विष्णु का रूप मान लिया गया।
- उसके बाद 1230 में राजा अनंगभीम तृतीय ने अपना राज्य पुरुषोत्तम जगन्नाथ को अर्पित कर दिया और स्वयं को जगन्नाथ को अर्पित कर दिया और स्वयं को जगन्नाथ का प्रतिनियुक्त घोसित किया |
- राजपूत और शूरवीरता की परंपराएब्रिटिश लोग उस क्षेत्र को जहाँ आज का अधिकाँश राजस्थान स्थित है, राजपूताना कहते थे। इससे ये समझा जाता है की इस क्षेत्र में अधिकाँश लोग राजपूत थे। राजस्थान में राजपूतों के अलावा अन्य लोग भी रहते हैं। तथापि, अकसर यह माना जाता है कि राजपूतों ने राजस्थान को एक विशिष्ट संस्कृति प्रदान की ।
- लगभग आठवीं शताब्दी से आज के राजस्थान के अधिकांश भाग पर विभिन्न परिवारों के राजपूत राजाओं का शासन रहा । पृथ्वीराज एक ऐसा ही शासक था। ये शासक ऐसे शूरवीरों के आदर्शों को अपने हृदय में संजोए रखते थे, जिन्होंने रणक्षेत्र में बहादुरी से लड़ते हुए अकसर मृत्यु का वरण किया, मगर पीठ नहीं दिखाई।
‘कत्थक’
- ‘कत्थक’ शब्द ‘कथा’ शब्द से निकला है, जिसका प्रयोग संस्कृत तथा अन्य भाषाओं में कहानी के लिए किया जाता है। कत्थक मूल रूप से उत्तर भारत के मंदिरों में कथा यानी
कहानी सुनाने वालों की एक जाति थी। ये कथाकार अपने हाव-भाव तथा संगीत से अपने कथावाचन को अलंकृत किया करते थे। पंद्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दियों में भक्ति आंदोलन के प्रसार के साथ कत्थक एक विशिष्ट नृत्य शैली का रूप धारण करने लगा। राधा-कृष्ण के पौराणिक आख्यान (कहानियाँ) लोक नाट्य के रूप में प्रस्तुत किए जाते थे, जिन्हें ‘रासलीला’ कहा जाता था। रासलीला में लोक नृत्य के साथ कत्थक कथाकार के मूल हाव-भाव भी जुड़े होते थे। आगे चलकर यह दो परंपराओं अर्थात् ‘घरानों’ में फूला – फला : राजस्थान (जयपुर) के राजदरबारों में और लखनऊ में अवध के अंतिम नवाब वाजिदअली शाह के संरक्षण में यह एक प्रमुख कला-रूप में उभरा।
नृत्य – रूप, जिन्हें शास्त्रीय माना जाता है | |
तमिलनाडु | भरतनाट्यम् |
केरल | कथकली |
उड़ीसा | ओडिसी |
आन्ध्र प्रदेश | कुचिपुड़ी |
मणिपुर | मणिपुरी |
लघुचित्र (Miniatures)
- लघुचित्र छोटे आकार के चित्र होते हैं, जिन्हें आमतौर पर जल रंगों से कपड़े या कागज़ पर चित्रित किया जाता है। प्राचीनतम लघुचित्र, तालपत्रों (palm leaves) अथवा लकड़ी की तख्तियों पर चित्रित किए गए थे। इनमें से सर्वाधिक सुंदर चित्र, जो पश्चिम भारत में पाए गए जैन ग्रंथों को सचित्र बनाने के लिए प्रयोग किए गए थे। मुग़ल बादशाह अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ ने अत्यंत कुशल चित्रकारों को संरक्षण प्रद किया था।
- सत्रहवीं शताब्दी के बाद वाले वर्षों में आधुनिक हिमाचल प्रदेश के इर्द-गिर्द हिमालय की तलहटी के इलाके में लघुचित्रकला की एक साहसपूर्ण एवं भावप्रवण शैली का विकास हो गया, जिसे ‘बसोहली’ शैली कहा जाता है। यहाँ जो सबसे लोकप्रिय पुस्तक चित्रित की गई वह थी – भानुदत्त की रसमंजरी |
- पीर फ़ारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है आध्यात्मिक मार्गदर्शक
- जीववाद का अर्थ यह मानना होता है कि पेड़-पौधों, जड़ वस्तुओं और प्राकृतिक घटनाओं में भी जीवात्मा है।
मछली भोजन के रूप में
- मछली पकड़ना बंगाल के लोगो का प्रमुख धंधा रहा है और बंगाली साहित्य में मछली का स्थान-स्थान पर उल्लेख मिलता है। मंदिरों और बौद्ध विहारों की दीवारों पर जो मिट्टी की पट्टियाँ लगी हैं, उनमें भी मछलियों को साफ़ करते हुए और टोकरियों में भर कर बाज़ार ले जाते हुए दर्शाया गया है। ब्राह्मणों को सामिष भोजन करने की अनुमति नहीं थी, लेकिन स्थानीय आहार में मछली की लोकप्रियता को देखत हुए ब्राह्मण धर्म के विशेषज्ञों ने बंगाली ब्राह्मणों के लिए इस निषेध में ढील दे दी। बृहद्धर्म पुराण, जो बंगाल में रचित तेरहवीं शताब्दी का संस्कृत ग्रन्थ हैं, ने स्थानीय ब्राह्मणों को कुछ खास किस्मों की मछली खाने की अनुमति दे दी |
मुगल साम्राज्य का पतन
- नादिरशाह ने 1739 में दिल्ली पर आक्रमण किया और संपूर्ण नगर को लूट कर वह बड़ी भारी मात्रा में धन-दौलत ले गया। वह तख्ते ताउस यानी मयूर सिंहासन को भी लूटकर अपने साथ ले गया । नादिरशाह के आक्रमण के बाद अफ़गान शासक अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों का तांता लगा रहा। उसने 1748 से 1761 के बीच पाँच बार उत्तरी भारत पर आक्रमण किया और लूटपाट मचाई।
- अठारहवीं शताब्दी के दौरान मुग़ल साम्राज्य धीरे-धीरे कई स्वतंत्र क्षेत्रीय राज्यों में बिखर गया।
नए राज्यों का उदय (Rise of new states)
मोटे तौर पर अठारहवीं शताब्दी के राज्यों को तीन परस्परव्यापी समूहों में बाँटा जा सकता है –
- अवध, बंगाल व हैदराबाद जैसे वे राज्य जो पहले मुग़ल प्रांत थे।
- ऐसे राज्य जो मुग़लों के पुराने शासनकाल में वतन जागीरों के रूप में काफ़ी स्वतंत्र थे। इनमें कई राजपूत प्रदेश भी शामिल थे।
- तीसरी श्रेणी में मराठों, सिक्खों तथा जाटों के राज्य आते हैं। ये विभिन्न आकार के थे और इन्होंने कड़े और लंबे सशस्त्र संघर्ष के बाद मुग़लों से स्वतंत्रता छीनकर ली थी। पुराने मुग़ल प्रांतों से जिन ‘उत्तराधिकारी राज्यों का उद्भव हुआ, उनमें से तीन राज्य प्रमुख थे : अवध, बंगाल और हैदराबाद। ये तीनों ही राज्य उच्च मुग़ल अभिजातों द्वारा स्थापित किए गए थे। इन तीनों राज्यों के संस्थापक सआदत ख़ान (अवध), मुर्शीद कुली ख़ान (बंगाल) और आसफजाह (हैदराबाद) ऐसे व्यक्ति थे, जिनका मुग़ल दरबार में ऊँचा स्थान था।
हैदराबाद
- निजाम-उल मुल्क आसफ जाह (1724-1748), जिसने हैदराबाद राज्य की स्थापना की थी; मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर के दरबार का एक अत्यंत शक्तिशाली सदस्य था।
- हैदराबाद के निजाम के निजी सैनिकों का एक वर्णन जो सन 1790 में किया गया इस प्रकार था
- निजाम के पास 400 हाथियों की सवारी है। उसके आस-पास कई हजार घुड़सवार रहते हैं। इन अत्यंत कुशल और अति सुन्दर सजे हुए सवारों का सांकेतिक वेतन 100 रु. से ज्यादा है।
अवध
- बुरहान-उल-मुल्क सआदत ख़ान को 1722 में अवध का सूबेदार नियुक्त किया गया था। मुग़ल साम्राज्य का विघटन होने पर जो राज्य बने, उनमें यह राज्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण राज्यों में से एक था। अवध एक समृद्धिशाली प्रदेश था, जो गंगा नदी के उपजाऊ मैदान में फैला हुआ था और उत्तरी भारत तथा बंगाल के बीच व्यापार का मुख्य मार्ग उसी में से होकर गुजरता था।
बंगाल
- मुर्शीद कुली ख़ान बंगाल के नायब थे, यानी कि प्रांत के सूबेदार के प्रतिनियुक्त थे। मुर्शीद कुली ख़ान औपचारिक रूप से सूबेदार कभी नहीं बना। उसने बहुत जल्द सूबेदार के पद से जुड़ी हुई सत्ता अपने हाथ में ली ली।
- राज्य और साहूकारों के बीच हैदराबाद तथा अवध में जो घनिष्ठ संबंध था, वह अलीवर्दी ख़ान के शासन काल (1740-1756) में बंगाल में भी स्पष्ट दिखाई दिया। उसके शासन काल में जगत सेठ का साहूकार घराना अत्यंत समृद्धिशाली हो गया।
राजपूत
- अम्बर और जोधपुर के राजपूत राजघरानों ने गुजरात और मालवा के लाभदायक सूबों की सूबेदारी का दावा किया। जोधपुर के राजा अजीत सिंह को गुजरात की सूबेदारी और अम्बर के सवाई राजा जयसिंह को मालवा की सूबेदारी मिल गई। बादशाह जहांदार शाह ने 1713 में इन राजाओं के इन पदों का नवीकरण कर दिया।
- जोधपुर राजघराने ने नागौर को जीत लिया और अपने राज्य में मिला लिया। दूसरी ओर अम्बर ने भी बूंदी के बड़े-बड़े हिस्सों पर अपना कब्जा कर लिया। सवाई राजा जयसिंह ने जयपुर में अपनी नई राजधानी स्थापित की और उसे 1722 में आगरा की सूबेदारी दे दी गई। 1740 के दशक से राजस्थान में मराठों के अभियानों ने इन रजवाड़ों पर भारी दबाव डालना शुरू कर दिया, जिससे उनका अपना विस्तार आगे होने से रुक गया।
- अम्बर के शासक सवाई जयसिंह ने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा और वाराणसी में पांच खगोलीय वेधशालाओं का निर्माण किया। जंतर मंतर के नाम से विख्यात इन वेधशालाओं में खगोलीय पिंडों के अध्ययन हेतु कई उपकरण है।
1732 के एक फारसी वृत्तांत में राजा जयसिंह का वर्णन :
- राजा जयसिंह अपनी सत्ता की चरम सीमा पर थे। बारह वर्ष के लिए वे आगरा के सूबेदार रहे और पाँच या छह वर्ष के लिए मालवा के। उनके पास विशाल सेना, तोपखाना तथा भारी मात्रा में धन-संपदा थी। उनका प्रभाव दिल्ली से लेकर नर्मदा के तट तक फैला हुआ था।
- कई राजपूत शासकों ने मुगलों का अधिराजत्व स्वीकार किया था लेकिन मेवाड़ एकमात्र ऐसा राजपूत राज्य था जिसने मुग़ल सत्ता को चुनौती दी थी। राणा प्रताप (1572 ) में उदयपुर तथा मेवाड़ के बड़े क्षेत्र पर नियंत्रण के साथ मेवाड़ की राजगद्दी पर आसीन हुए। राणा प्रताप के पास मुग़ल . अधिराजत्व को स्वीकार करने के लिए कई दूतों को भेजा गया लेकिन वे अपने निर्णय पर दृढ़ रहे।
सिक्ख
- गुरु गोबिंद सिंह ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना और उसके पश्चात् राजपूत व मुग़ल शासकों के खिलाफ़ कई लड़ाइयाँ लड़ीं। 1708 में गुरु गोबिंद सिंह की मृत्यु के बाद बंदा बहादुर के नेतृत्व में ‘खालसा ने मुग़ल सत्ता के खिलाफ विद्रोह किए। उन्होंने बाबा गुरु नानक और गुरु गोबिंद सिंह के नामों वाले सिक्के गढ़कर अपने शासन को सार्वभौम बताया। सतलुज और यमुना नदियों के बीच के क्षेत्र में उन्होंने अपने प्रशासन की स्थापना की। 1715 में बंदा बहादुर को बंदी बना लिया गया और 1716 में मार दिया गया।
- अठारहवीं शताब्दी में सिक्खों ने अपने-आपको पहले जत्थों में, और बाद में ‘मिस्लों’ में संगठित किया। इन जत्थों और मिस्लों की संयुक्त सेनाएँ ‘दल खालसा’ कहलाती थीं।
- दल खालसा की बैठकों में वे सामूहिक निर्णय लिए जाते थे, जिन्हें गुरमत्ता ( गुरु के प्रस्ताव ) कहा जाता था। सिक्खों ने राखी व्यवस्था स्थापित की
- महाराजा रणजीत सिंह ने विभिन्न सिक्ख समूहों में फिर से एकता कायम कर 1799 में लाहौर को अपनी राजधानी बनाया।
मराठा
- मराठा राज्य एक अन्य शक्तिशाली क्षेत्रीय राज्य था। 17वीं सदी के अंत तक दक्कन में शिवाजी के नेतृत्व में एक शक्तिशाली राज्य के उदय की शुरुआत हुई, जिससे अंततः एक मराठा राज्य की स्थापना हुई। शिवाजी का जन्म 1630 में शाहजी और बाई से हुआ। अपनी माता और अभिभावक दादा कोंडदेव के मार्ग निर्देशन में शिवाजी कम उम्र में ही विजयपथ पर निकल पड़े। जावली पर कब्जे ने उन्हें मवाला पठारों का अविवादित मुखिया बना दिया जिसने उनके क्षेत्र विस्तार का पथ प्रशस्त किया। बीजापुर और मुगलों के खिलाफ उनके कारनामों ने उन्हें विख्यात व्यक्तित्व बना दिया। वे अपने विरोधियों के खिलाफ प्रायः गुरिल्ला युद्धकला का प्रयोग करते थे। चौथ और सरदेशमुखी पर आधारित राजस्व संग्रह प्रणाली की सहायता से उन्होंने एक मजबूत मराठा राज्य की नींव रखी।
- शिवाजी (1627-1680) ने शक्तिशाली योद्धा परिवारों स्थायी राज्य की स्थापना की। अत्यंत गतिशील कृषक- सेना के मुख्य आधार बन गए ।
(देशमुखों) की सहायता से क चारक ( कुनबी) मराठों की - शिवाजी ने प्रायद्वीप में मुग़लों को चुनौती देने के लिए इस सैन्य बल का प्रयोग किया। शिवाजी की मृत्यु के पश्चात्, मराठा राज्य में प्रभावी शक्ति, चितपावन ब्राह्मणों के एक परिवार के हाथ में रही, जो शिवाजी के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में ‘पेशवा’ (प्रधानमंत्री) के रूप में अपनी सेवाएं देते रहे।
- 1720 के दशक में मालवा में मराठा अभियानों ने उस क्षेत्र में स्थित शहरों के विकास व समद्धि को कोई हानि नहीं पहुँचाई। उज्जैन सिंधिया के संरक्षण में और इंदौर होल्कर के आश्रय में फलता-फूलता रहा । शहर हर तरह से बड़े और समृद्धिशाली थे और वे महत्त्वपूर्ण वाणिज्यिक और सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में कार्य कर रहे थे। मराठों द्वारा नियंत्रित इलाकों में व्यापार के नए मार्ग खुले। चंदेरी के क्षेत्र में उत्पादित रेशमी वस्त्रों को मराठों की राजधानी पुणे में नया बाजार मिला ।
- बाज़ीराव प्रथम, जो बाजीराव बल्लाल के नाम से भी जाने जाते हैं, पेशवा बालाजी विश्वनाथ के पुत्र थे। वह एक महान मराठा सेनापति थे। उन्हें विंध्य के पार मराठा राज्य के विस्तार का श्रेय प्राप्त है तथा वे मालवा, बुंदेलखंड, गुजरात और पुर्तगालियों के खिलाफ सैन्य अभियानों के लिए भी जाने जाते हैं।
चौथ कर जमींदारों द्वारा वसूले जाने वाले भू-राजस्व का 25 प्रतिशत। दक्कन में इनको मराठा वसूलते थे।
सरदेशमुखी कर दक्कन में मुख्य राजस्व संग्रहकर्ता को दिए जाने वाले भू- राजस्व का 9-10 प्रतिशत हिस्सा ।
जाट
- जाटों ने सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दियों में अपनी सत्ता सुदृढ़ की। अपने नेता चूडामन के नेतृत्व में उन्होंने दिल्ली के पश्चिम में स्थित क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण कर लिया। 1680 के दशक तक आते-आते उनका भूत्व दिल्ली और आगरा के दो शाही शहरों के बीच के क्षेत्र पर होना शुरू हो गया।
- जाट, समृद्ध कृषक थे और उनके प्रभुत्व- क्षेत्र में पानीपत तथा बल्लभगढ़ जैसे शहर महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गए। सूरज के राज में भरतपुर शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा।
- भरतपुर का किला काफ़ी हद तक पारंपरिक शैली में बनाया गया, वहीं दीग में जाटों ने अम्बर और आगरा की शैलियों का समन्वय करते हुए एक विशाल बाग-महल बनवाया। शाही वास्तुकला से जिन रूपों को पहली बार शाहजहाँ के युग में जोड़ा गया था, दीग की इमारतें उन्हीं रूपों के नमूने पर बनाई गई थीं।
- जाटों की शक्ति सूरज मल के दौरान भरतपुर जाट राज्य को के राजनैतिक नियंत्रण में, जो
समय पराकाष्ठा पर पहुँची, जिन्होंने 1756-1763 के (आधुनिक राजस्थान में) संगठित किया। सूरज मल क्षेत्र शामिल थे उसमें आधुनिक पूर्वी राजस्थान, दक्षिणी
हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली शामिल थे। सूरज मल ने कई किले और महल बनवाए जिनमें भरतपुर का प्रसिद्द लोहागढ़ का किला इस क्षेत्र में बने सबसे मजबूत किलों में से एक था।
फ्रांसीसी क्रांति (1789-1794) (The French Revolution)
- अठारहवीं शताब्दी में भारत की विभिन्न राज्य व्यवस्थाओं में जनसाधारण को अपनी-अपनी सरकारों के कार्यों में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं था। ऐसी स्थिति पश्चिमी दुनिया में अठारहवीं शताब्दी के आखिरी दशकों तक बनी हुई थी। अमरीकी (1776-1781) और फ्रांसीसी क्रांतियों ने इस स्थिति को और साथ-साथ अभिजात वर्ग के सामजिक व राजनीतिक प्राधिकारों को चुनौती दी ।
- फ्रांसीसी क्रांति के दौरान मध्य वर्गों, किसानों और शिल्पकारों ने पादरी गण और अभिजातों के विशेषाधिकारों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। उनका मानना था कि समाज में किसी भी समूह के जन्मसिद्ध प्राधिकार नहीं होने चाहिए, बल्कि लोगों की सामाजिक स्थिति योग्यता पर निर्भर करनी चाहिए। फ्रांसीसी क्रांति के दार्शनिकों ने यह सुझाया कि सभी के लिए समान कानून और समान अवसर होने चाहिए। उनका यह भी
था कि सरकार की सत्ता लोगों से बननी चाहिए और जनता को सरकार के कार्यों में भूमिका अदा करने का अधिकार होना चाहिए। फ्रांसीसी और अमरीकी क्रांतियों जैसे आंदोलनों ने धीरे-धीरे प्रजाओं को नागरिकों में बदल डाला।
भारतीय इतिहास
(Indian history)
- 1817 में स्कॉटलैंड के अर्थशास्त्री और राजनीतिक दार्शनिक जेम्स मिल ने तीन विशाल खंडों में ए हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया (ब्रिटिश भारत का इतिहास ) नामक एक किताब लिखी। इस किताब में उन्होंने भारत के इतिहास को हिंदू, मुसलिम और ब्रिटिश, इन तीन काल खंडों में बाँटा था।
- इतिहासकार भारतीय इतिहास को आमतौर पर ‘प्राचीन’, ‘मध्यकालीन’, तथा ‘आधुनिक’ काल में बाँटकर देखते हैं। इस विभाजन की भी अपनी समस्याएँ हैं। इतिहास को इन खंडों में बाँटने की यह समझ भी पश्चिम से आई है।
- पश्चिम में आधुनिक काल को विज्ञान, तर्क, लोकतंत्र, मुक्ति और समानता जैसी आधुनिकता की ताकतों के विकास का युग माना जाता है। उनके लिए मध्यकालीन समाज समाज थे जहाँ आधुनिक समाज की ये विशेषताएँ नहीं थीं ।
औपनिवेशीकरण (Colonisation)
- ब्रिटिश शासन के कारण भारत में यहाँ की मूल्य मान्यताओं और पसंद-नापसंद, रीति- रिवाज व तौर-तरीकों में बदलाव आए। जब एक देश पर दूसरे देश के दबदबे से इस तरह के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव आते हैं तो इस प्रकिया को औपनिवेशीकरण कहा जाता है।
सर्वेक्षण
- उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक पूरे देश का नक्शा तैयार करने के लिए बड़े-बड़े सर्वेक्षण किए जाने लगे थे। गांवों में राजस्व सर्वेक्षण किए गए। इन सर्वेक्षणों में धरती की सतह, मिट्टी की गुणवत्ता, वहाँ मिलने वाले पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं तथा स्थानीय इतिहासों व फसलों का पता लगाया जाता था।
- रॉबर्ट क्लाइव ने रेनेल को हिंदुस्तान के नक़्शे तैयार करने का काम सौंपा था।
- उन्नीसवीं सदी के आखिर से हर दस साल में जनगणना भी की जाने लगी। जनगणना के जरिये भारत के सभी प्रांतों में रहने वाले लोगों की संख्या, उनकी जाति, इलाके और व्यवसाय के बारे में जानकारियाँ इकट्ठा की जाती थीं। इसके अलावा वानस्पतिक सर्वेक्षण, प्राणि वैज्ञानिक सर्वेक्षण, पुरातात्वीय सर्वेक्षण, मानवशास्त्रीय सर्वेक्षण, वन सर्वेक्षण आदि कई दूसरे सर्वेक्षण भी किए जाते थे।
पूर्व में ईस्ट इंडिया कंपनी का आना
- सन् 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम से चार्टर अर्थात इजाजतनामा हासिल कर लिया जिससे कंपनी को पूरब से व्यापार करने का एकाधिकार मिल गया | इस इजाजतनामे का मतलब यह था कि इंग्लैंड की कोई और व्यापारिक कंपनी इस इलाके में ईस्ट इंडिया कंपनी से होड़ नहीं कर सकती थी। इस चार्टर के सहारे कंपनी समुद्र पार जाकर नए इलाकों को खंगाल सकती थी, वहाँ से सस्ती कीमत पर चीजें खरीद कर उन्हें यूरोप में ऊँची कीमत पर बेच सकती थी ।
- पहली इंग्लिश फैक्टरी 1651 में हुगली नदी के किनारे शुरू हुई। कंपनी के व्यापारी यहीं से अपना काम चलाते थे। इन व्यापारियों को उस जमाने में “फैक्टर” कहा जाता था।
- 1696 तक कंपनी ने मुगल अफ़सरों को रिश्वत देकर तीन गाँवों की ज़मींदारी भी खरीद ली। इनमें से एक गाँव कालीकाता था जो बाद में कलकत्ता बना। अब इसे कोलकाता कहा जाता है। कंपनी ने मुगल सम्राट औरंगजेब को इस बात के लिए भी तैयार कर लिया कि वह कंपनी को बिना शुल्क चुकाए व्यापार करने का फरमान जारी कर दे।
व्यापार से युद्धों तक
- अठारहवीं सदी की शुरुआत में कंपनी और बंगाल के नवाबों का टकराव काफी बढ़ गया था। मुर्शिद कुली खान के बाद अली वर्दी खान और उसके बाद सिराजुद्दौला बंगाल के
वा बने। ये सभी शक्तिशाली शासक थे। उन्होंने कंपनी को रियायतें देने से मना कर दिया ।
प्लासी का युद्ध
- 1756 में अली वर्दी खान की मृत्यु के बाद सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब बने। कंपनी को सिराजुद्दौला की ताकत से काफी भय था । सिराजद्दौला की जगह कंपनी एक ऐसा कठपुतली नवाब चाहती थी जो उसे व्यापारिक रियायतें और अन्य सुविधाएँ आसानी से देने में आनाकानी न करे। कंपनी ने प्रयास किया कि सिराजुद्दौला के प्रतिद्वंद्वियों में से किसी को नवाब बना दिया जाए। कंपनी को कामयाबी नहीं मिली। जवाब में सिराजद्दौला ने हुक्म दिया कि कंपनी उनके राज्य के राजनीतिक मामलों में टाँग अड़ाना बंद कर दे, किलेबंदी रोके और बाकायदा राजस्व चुकाए। जब दोनों पक्ष पीछे हटने को तैयार नहीं हुए तो अपने 30,000 सिपाहियों के साथ नवाब कासिम बाजार में स्थित इंग्लिश फैक्टरी पर हमला बोल दिया। नवाब की फौजों ने कंपनी के अफसरों को गिरफ्तार कर लिया, गोदाम पर ताला डाल दिया, अंग्रेजों के हथियार छीन लिए और अंग्रेज़ जहाजों को घेरे में ले लिया। इसके बाद नवाब ने कंपनी के कलकत्ता स्थित किले पर कब्जे के लिए उधर का रुख किया।
- कलकत्ता के हाथ से निकल जाने की खबर सुनने पर मद्रास में तैनात कंपनी के अफसरों ने भी रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में सेनाओं को रवाना कर दिया। इस सेना को नौसैनिक बेड़े की मदद भी मिल रही थी। इसके बाद नवाब के साथ लंबे समय तक सौदेबाजी चली। आखिरकार 1757 में रॉबर्ट क्लाइव ने प्लासी के मैदान में सिराजुद्दौला के ख़िलाफ़ कंपनी की सेना का नेतृत्व किया। नवाब सिराजुद्दौला की हार का एक बड़ा कारण उसके सेनापतियों में से एक सेनापति मीर जाफ़र की कारगुजारियाँ भी थीं। मीर जाफ़र की टुकड़ियों ने इस युद्ध में हिस्सा नहीं लिया। रॉबर्ट क्लाइव ने यह कहकर उसे अपने साथ मिला लिया था कि सिराजुद्दौला को हटा कर मीर जाफ़र को नवाब बना दिया जाएगा।
- प्लासी की जंग इसलिए महत्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि भारत में यह कंपनी की पहली बड़ी जीत थी। प्लासी की जंग के बाद सिराजुद्दौला को मार दिया गया और मीर जाफर नवाब बना ।
प्लासी का नाम पलाशी था जिसे अंग्रेजों ने बिगाड़ कर प्लासी कर दिया था। इस जगह को पलाशी यहाँ पाए जाने वाले पलाश के फूलों के कारण कहा जाता था। पलाश के खूबसूरत लाल फूलों से गुलाल बनाया जाता है जिसका होली पर इस्तेमाल होता है।
पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी तट पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी। वे गोवा में अपना ठिकाना बना चुके थे। पुर्तगाल के खोजी यात्री वास्को द गामा ने ही 1498 में पहली बार भारत तक पहुँचने के इस समुद्री मार्ग का पता लगाया था।
प्लासी के युद्ध के बाद
- 1765 में जब मीर जाफ़र की मृत्यु हुई तब तक कंपनी के इरादे बदल चुके थे। कठपुतली नवाबों के साथ अपने खराब अनुभवों को देखते हुए रॉबर्ट क्लाइव ने ऐलान किया कि अब “हमें खुद ही नवाब बनना पड़ेगा । “
- आखिरकार 1765 में मुगल सम्राट ने कंपनी को ही बंगाल प्रांत का दीवान नियुक्त कर दिया। दीवानी मिलने के कारण कंपनी को बंगाल के विशाल राजस्व संसाधनों पर नियंत्रण मिल गया था।
- रॉबर्ट क्लाइव को 1772 में ब्रिटिश संसद मे भ्रष्टाचार के आरोपों पर अपनी सफ़ाई देनी पड़ी। सरकार को उसकी अकूत संपत्ति के स्रोत संदेहास्पद लग रहे थे। उसे भ्रष्टाचार आरोपों से बरी तो कर दिया गया लेकिन 1774 में उसने आत्महत्या कर ली।
- कंपनी के बहुत सारे अफसरों की सबसे बड़ी इच्छा बस यही थी कि वे भारत में ठीक- ठाक पैसा कमाएँ और ब्रिटेन लौटकर आराम की जिंदगी बसर करें। जो जीते जी धन- दौलत लेकर वापस लौट गए उन्होंने वहाँ आलीशान जीवन जिया । उन्हें वहाँ के लोग “नबॉब” कहते थे। यह भारतीय शब्द ‘नवाब’ का ही अंग्रेजी संस्करण बन गया था। उन्हें लोग अकसर नए अमीरों और सामाजिक हैसियत में रातों-रात ऊपर आने वाले लोगों के रूप में देखते थे। नाटकों और कार्टून में उनका मजाक उड़ाया जाता था।
कंपनी का फैलता शासन
- बक्सर की लड़ाई (1764) के बाद कंपनी ने भारतीय रियासतों में रेजिडेंट तैनात कर दिये। ये कंपनी के राजनीतिक या व्यावसायिक प्रतिनिधि होते थे। उनका काम कंपनी के हितों की रक्षा करना और उन्हें आगे बढ़ाना था ।
- रजिडेंट के माध्यम से कंपनी के अधिकारी भारतीय राज्यों के भीतरी मामलों में भी दखल देने लगे थे। कई बार कंपनी ने रियासतों पर “सहायक संधि” भी थोप दी। जो रियासत इस बंदोबस्त को मान लेती थी उसे अपनी स्वतंत्र सेनाएँ रखने का अधिकार नहीं रहता था। उसे कंपनी की तरफ से सुरक्षा मिलती थी और “सहायक सेना” के रखरखाव के लिए वह कंपनी को पैसा देती थी। अगर भारतीय शासक रकम अदा करने में चूक जाते थे तो जुर्माने के तौर पर उनका इलाका कंपनी अपने कब्जे में ले लेती थी।
टीपू सुल्तान
- हैदर अली ( शासन काल 1761 से 1782 ) और उनके विख्यात पत्र टीप सुल्तान (शासन काल 1782 से 1799) जैसे शक्तिशाली शासकों के नेतृत्व में काफी ताकतवर हो चुका था । मालाबार तट पर होने वाला व्यापार मैसूर रियासत के नियंत्रण में था जहाँ से कंपनी काली मिर्च और इलायची ख़रीदती थी। 1785 टीपू सुल्तान ने अपनी रियासत में पड़ने वाले बंदरगाहों से चंदन की लकड़ी, काली मिर्च और इलायची का निर्यात रोक दिया। ल्तान ने स्थानीय सौदागरों को भी कंपनी के साथ कारोबार करने से रोक दिया था। टीपू सुल्तान ने भारत में रहने वाले फ्रांसीसी व्यापारियों से घनिष्ठ संबंध विकसित किए और उनकी मदद से अपनी सेना IIT आधुनिकीकरण किया।
- कंपनी की फौजों को हैदर अली और टीपू सुल्तान ने कई बार युद्ध में हराया था। लेकिन 1792 में मराठों, हैदराबाद के निज़ाम और कंपनी की संयुक्त फौजों के हमले के बाद टीपू सुल्तान को अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी। इस संधि के तहत उनके दो बेटों को अंग्रेजों ने बंधक के रूप में अपने पास रख लिया।
- मैसूर के साथ अंग्रेज़ों की चार बार जंग हुई (1767-69, 1780-84, 1790-92 और 1799)। श्रीरंगपट्म की आखिरी जंग में कंपनी को सफलता मिली। अपनी राजधानी की रक्षा करते हुए टीपू सुल्तान मारे गए और मैसूर का राजकाज पुराने वोडियार राजवंश के हाथों में सौंप दिया गया। इसके साथ ही मैसूर पर भी सहायक संधि थोप दी गई।
मराठो से लड़ाई
- 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में हार के बाद दिल्ली से देश का शासन चलाने का मराठों का सपना चूर-चूर हो गया। उन्हें कई राज्यों में बाँट दिया गया। इन राज्यों की बागडोर सिंधिया, होलकर, गायकवाड और भोंसले जैसे अलग-अलग राजवंशों के हाथों में थी। ये सारे सरदार एक पेशवा (सर्वोच्च मंत्री) के अंतर्गत एक कन्फेडरेसी (राज्यमण्डल) के सदस्य थे। पेशवा इस राज्यमण्डल का सैनिक और प्रशासकीय प्रमुख होता था और पुणे में रहता था। महादजी सिंधिया और नाना फड़नीस अठारहवीं सदी के आखिर के दो प्रसिद्ध मराठा योद्धा और राजनीतिज्ञ थे।
सर्वोच्चता (Paramountcy)
- लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813 से 1823 तक गवर्नर-जनरल) के नेतृत्व में “सर्वोच्चता” की एक नयी नीति – शरू की गई। कंपनी का दावा था कि उसकी सत्ता सर्वोच्च है इसलिए वह भारतीय राज्यों से ऊपर है। अपने हितों की रक्षा के लिए वह भारतीय रियासतों का अधिग्रहण करने या उनको अधिग्रहण की धमकी देने का अधिकार अपने पास मानती थी।
विलय नीति (The Doctrine of Lapse)
- लॉर्ड डलहौज़ी के शासन काल में चली। लॉर्ड डलहौज़ी ने एक नयी नीति अपनाई जिसे विलय नीति का नाम दिया गया। यह सिद्धांत इस तर्क पर आधारित था कि अगर किसी शासक की मृत्यु हो जाती है और उसका कोई पुरुष वारिस नहीं है तो उसकी रियासत हड़प कर ली जाएगी यानी कंपनी के भूभाग का हिस्सा बन जाएगी। इस सिद्धांत के आधार पर एक के बाद एक कई रियासतें सतारा (1848), संबलपुर (1850), उदयपुर (1852), नागपुर ( 1853) और झाँसी ( 1854 ) – अंग्रेजों के हाथ में चली गईं।
- आखिरकार 1856 में कंपनी ने अवध को भी अपने नियंत्रण में ले लिया। इस बार अंग्रेजों ने एक नया तर्क दिया। उन्होंने कहा कि वे अवध की जनता को नवाब के “कुशासन” से आज़ाद कराने के लिए “कर्तव्य से बँधे हुए हैं इसलिए वे अवध पर कब्जा करने को मजबूर हैं! अपने प्रिय नवाब को जिस तरह से गद्दी से हटाया गया, उसे देखकर लोगों में गुस्सा भड़क उठा और अवध के लोग भी 1857 के विद्रोह में शामिल हो गए।
नए शासन की स्थापना
- ब्रिटिश इलाके मोटे तौर पर प्रशासकीय इकाइयों में बटे हुए थे जिन्हें प्रेज़िडेंसी कहा जाता था। उस समय तीन प्रेजिडेंसी थीं- बंगाल, मद्रास और बम्बई । हरेक का शासन गवर्नर के पास होता था। सबसे ऊपर गवर्नर-जनरल होता था। वॉरेन हेस्टिंग्स ने कई प्रशासकीय सुधार किए। न्याय के क्षेत्र में उसके सुधार ख़ासतौर से उल्लेखनीय थे।
- 1772 से एक नयी न्याय व्यवस्था स्थापित की गई। इस व्यवस्था में प्रावधान किया गया कि हर जिले में दो अदालतें होंगी – फ़ौजदारी अदालत और दीवानी अदालत | दीवानी अदालतों के मुखिया यूरोपीय जिला कलेक्टर होते थे। मौलवी और हिंदू पंडित उनके लिए भारतीय कानूनों की व्याख्या करते थे। फ़ौजदारी अदालतें अभी भी का और मुफ्ती के ही अंतर्गत थीं लेकिन वे भी कलेक्टर की निगरानी में काम करते थे।
- जब वॉरेन हेस्टिंग्स 1785 में इंग्लैंड लौटा तो ऐडमंड बर्के ने उस पर बंगाल का शासन सही ढंग से न चलाने का आरोप जड़ दिया। इस आरोप के चलते हेस्टिंग्स पर ब्रिटिश संसद में महाभियोग का मुकदमा चलाया गया जो सात साल चला।
- काज़ी – एक न्यायाधीश को कहते थे।
- मुफ्ती – मुसलिम समुदाय का एक न्यायविद जो कानूनों की व्याख्या करता है। काजी इसी व्याख्या के आधार पर फ़ैसले सुनाता है।
- महाभियोग (Impeachment) – जब इंग्लैंड के हाउस ऑफ कॉमंस में किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ दुराचरण का आरोप लगाया जाता है तो हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स ( संसद का ऊपरी सदन) में उस व्यक्ति के ख़िलाफ़ मुकदमा चलता है। इसे महाभियोग कहा जाता है।
- अंग्रेज़ अपनी सेना को सिपॉय (जो भारतीय शब्द ‘सिपाही’ से ही बना है) आर्मी कहते थे।
- धर्मशास्त्र – संस्कृत की ऐसी कृतियाँ जिनमें सामाजिक तौर-तरीकों और आचरण के | सिद्धांतों की व्याख्या की जाती है। ये धर्मशास्त्र ईसा पूर्व 500 वर्ष से भी पहले लिखे गए थे।
- मस्केट पैदल सिपाहियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली एक भारी बंदूक को कहते थे।
- मैचलॉक – शुरुआती दौर की बंदूक जिसमें बारूद को माचिस से चिंगारी दी जाती थी।रेग्युलेटिंग ऐक्ट (Regulating Act)
- 1773 के रेग्युलेटिंग ऐक्ट के तहत एक नए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। इसके अलावा कलकत्ता में अपीलीय अदालत – सदर निजामत की भी स्थापना की गई।
- भारतीय जिले में कलेक्टर सबसे बड़ा ओहदा होता था। उसका मुख्य काम लगान और कर इकट्ठा करना तथा न्यायाधीशों, पुलिस अधिकारियों व दारोगा की सहायता से जिले में कानून-व्यवस्था बनाए रखना होता था।
ईस्ट इंडिया कंपनी का औपनिवेशिक शक्ति बनना
- ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक कंपनी से बढ़ते-बढ़ते एक भौगोलिक औपनिवेशिक शक्ति बन गई। उन्नीसवीं सदी की शरुआत में नयी भाप तकनीक के आने से यह प्रक्रिया और तेज हई । तब तक समुद्र मार्ग से भारत पहुँचने में 6-8 माह का समय लग जाता था। भाप से चलने वाले जहाजों ने यह यात्रा तीन हफ्तों में समेट दी।
- 1857 तक भारतीय उपमहाद्वीप के 63 प्रतिशत भूभाग और 78 प्रतिशत आबादी पर कंपनी का सीधा शासन स्थापित हो चुका था।
दक्षिण अफ्रीका में दास व्यापार
- डच व्यापारी सत्रहवीं सदी में दक्षिण अफ्रीका पहुँचे। जल्द ही दास व्यापार शुरू हो गया। लोगों को बंधक बनाकर जंजीरों में बाँधकर दास बाजारों में बेचा जाने लगा। 1834 में दास प्रथा के अन्त के समय अफ्रीका के दक्षिणी सिरे पर स्थित केप में निजी स्वामित्व में दासों की संख्या 36,774 थी ।
कंपनी का दीवान बनना
- 12 अगस्त 1765 को मुग़ल बादशाह ने ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल का व तैनात किया ।
- दीवान के तौर पर कंपनी अपने नियंत्रण वाले भूभाग के आर्थिक मामलों की मुख्य शासक बन गई थी।
कंपनी की आमदनी
- 1865 से पहले कंपनी ब्रिटेन से सोने और चाँदी का आयात करती थी और इन चीजों के बदले सामान खरीदती थी। अब बंगाल में इकट्ठा होने वाले पैसे से ही निर्यात के लिए चीजें खरीदी जा सकती थीं।
- जल्दी ही यह ज़ाहिर हो गया कि बंगाल की अर्थव्यवस्था एक गहरे संकट में फँसती जा रही है। कारीगर गाँव छोड़कर भाग रहे थे क्योंकि उन्हें बहुत कम कीमत अपनी चीजें कंपनी को जबरन बेचनी पड़ती थीं। किसान अपना लगान नहीं चुका पा रहे थे। कारीगरों का उत्पादन गिर रहा था और खेती चौपट होने की दिशा में बढ़ रही थी। 1770 में पड़े अकाल के कारण बंगाल में एक करोड़ लोगों की मौत हो गई थी। इस अकाल में लगभग एक तिहाई आबादी समाप्त हो गई।
स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement)
- कंपनी ने 1793 में स्थायी बंदोबस्त लागू किया। इस बंदोबस्त की शर्तों के हिसाब से राजाओं और तालुकदारों को ज़मींदारों के रूप में मान्यता दी गई। उन्हें किसानों से लगान वसूलने और कंपनी को राजस्व चुकाने का जिम्मा सौंपा गया। उनकी ओर से चुकाई जाने वाली राशि स्थायी रूप से तय कर दी गई थी। इसका मतलब यह था भविष्य में कभी भी उसमें इजाफा नहीं किया जाना था।
- कंपनी ने जो राजस्व तय किया था वह इतना ज्यादा था कि उसको चुकाने में ज़मींदारों को भारी परेशानी हो रही थी। जो ज़मींदार राजस्व चुकाने में विफल हो जाता था उसकी ज़मींदारी छीन ली जाती थी। सारी ज़मींदारियों को कंपनी बाकायदा नीलाम कर चुकी थी ।
एक नई व्यवस्था
- होल्ट मैकेंजी अंग्रेज़ ने एक नयी व्यवस्था तैयार की जिसे 1822 में लागु किया गया। उसके आदेश पर कलेक्टरों ने गाँव-गाँव का दौरा किया, ज़मीन की जाँच की, खेतों को मापा और विभिन्न समूहों के रीति-रिवाजों को दर्ज किया।
- गाँव के एक-एक खेत के अनुमानित राजस्व को जोड़कर हर गाँव या ग्राम समूह (महाल) से वसूल होने वाले राजस्व का हिसाब लगाया जाता था। इस राजस्व को स्थायी रूप से तय नहीं किया गया बल्कि उसमें समय-समय पर संशोधनों की गुंजाइश रखी गई। राजस्व इकट्ठा करने और उसे कंपनी को अदा करने का जिम्मा ज़मीदार की बजाय गांव के मुखिया को सौंप दिया गया। इस व्यवस्था को महालवारी बंदोबस्त का नाम दिया गया।
मुनरो व्यवस्था
- ब्रिटिश नियंत्रण वाले दक्षिण भारतीय इलाकों में भी स्थायी बंदोबस्त की जगह नयी व्यवस्था अपनाने का प्रयास किया जाने लगा। वहाँ जो नयी व्यवस्था विकसित हुई उसे रैयतवार ( या रैयतवारी) का नाम दिया गया।
- टॉमस मुनरो ने इस व्यवस्था को विकसित किया और धीरे-धीरे परे दक्षिणी भारत पर यही व्यवस्था लागू कर दी गई। और मुनरो को लगता था कि दक्षिण में परंपरागत ज़मींदार नहीं थे। इसलिए उनका तर्क यह था कि उन्हें सीधे किसानों (रैयतों) से ही बंदोबस्त करना चाहिए जो पीढियों से ज़मीन पर खेती करते आ रहे हैं। राजस्व आकलन से पहले उनके खेतों का सावधानीपूर्वक और अलग से सर्वेक्षण किया जाना चाहिए। मुनरो का मानना था कि अंग्रेजों को पिता की भाँति किसानों की रक्षा करनी चाहिए।
यूरोप के लिए फसल
- अठाहरवीं सदी के आखिर तक कंपनी ने अफ़ीम और नील की खेती पर पूरा जोर लगा दिया था। इसके बाद लगभग 150 साल तक अंग्रेज़ देश के विभिन्न भागों में किसी न किसी फसल के लिए किसानों को मजबूर करते रहे : बंगाल में पटसन, असम में चाय, संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में गन्ना, पंजाब में गेहूँ, महाराष्ट्र व पंजाब में कपास, मद्रास में चावल |
- नील का पौधा मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय ( tropics ) इलाकों में ही उगता है। तेरहवीं सदी तक इटली, फ्रांस और ब्रिटेन के कपड़ा उत्पादक कपड़े की रँगाई के लिए भारतीय नील का इस्तेमाल कर रहे थे।
अठारहवीं शताब्दी के आखिर तक भारतीय नील की माँग और बढ़ गई। ब्रिटेन में औद्योगीकरण का युग शुरू हो चुका था और उसके कपास उत्पादन में भारी इजाफा हुआ। - अठाहरवीं सदी के आखिरी दशकों से ही बंगाल में नील की खेती तेजी से फैलने लगी थी। बंगाल में पैदा होने वाला नील दुनिया के बाज़ारों पर छा गया था। 1788 में ब्रिटेन द्वारा आयात किए गए नील में भारतीय नील का हिस्सा केवल लगभग 30 प्रतिशत था। 1810 में ब्रिटेन द्वारा आयात किए गए नील में भारतीय नील का हिस्सा 95 प्रतिशत हो चुका था।
- कंपनी के बहुत सारे अधिकारियों ने नील के अपने कारोबार पर ध्यान देने के अपनी नौकरियाँ छोड़ दीं। भारी मुनाफ़े की उम्मीद में स्कॉटलैंड और इंग्लैंड के बहुत सारे लोग भारत आए और उन्होंने नील के बाग़ान लगा लिए। जिनके पास नील की पैदावार के लिए पैसा नहीं था उन्हें कंपनी और नए-नए कर्जा देने को तैयार रहते थे।
नील की खेती के तरीके
- नील की खेती के दो मुख्य तरीके थे | निज और रैयती । निज खेती की व्यवस्था में बागान मालिक खुद अपनी जमीन में नील का उत्पादन करते थे। या तो वह जमीन खरीद लेते थे या दूसरे ज़मींदारों से जमीन भाडे पर लेते थे और मज़दरों को काम पर लगाकर नील की खेती करवाते थे।
- रैयती व्यवस्था के तहत बागान मालिक रैयतों के साथ एक अनुबंध (सट्टा) करते थे। कई बार वे गाँव के मुखियाओं को भी रैयतों की तरफ से समझौता करने के लिए बाध्य कर देते थे। जो अनुबंध पर दस्तखत कर देते थे उन्हें नील उगाने के लिए कम ब्याज दर पर बाग़ान मालिकों से नक़द कर्जा मिल जाता था। कर्जा लेने वाले रैयत को अपनी कम से कम 25 प्रतिशत ज़मीन पर नील की खेती करनी होती थी। बागान मालिक बीज और उपकरण मुहैया कराते थे जबकि मिट्टी को तैयार करने बीज बोने और फ़सल की देखभाल करने का जिम्मा काश्तकारों के ऊपर रहता था। जब कटाई के बाद फ़सल बाग़ान मालिक को सौंप दी जाती थी तो रैयत को नया कर्जा मिल जाता था।
फ्रांसीसी बागान
- अठाहरवीं सदी में फ्रांसीसी बागान मालिकों ने कैरीबियाई द्वीप समूह में स्थित फ्रांसीसी उपनिवेश सेंट डॉमिंग्यू में नील और चीनी का उत्पादन शुरू किया। इन बागानों में काम करने वाले अफ्रीकी गुलाम 1791 में बगावत पर उतर आए। उन्होंने बागान जला दि और अपने धनी मालिकों को मार डाला। 1792 में फ्रांस ने अपने उपनिवेशों में दास प्रथा समाप्त कर दी। इन घटनाओं की वजह से कैरीबियाई द्वीपों में नील की खेती ठप्प हो गई।
- बागान – एक विशाल खेत जिस पर बागान मालिक बहुत सारे लोगों से जबरन काम करवाता था। कॉफ़ी, गन्ना, तंबाकू, चाय और कपास आदि के विषय में बागानों का जिक्र किया जाता है।
जनजातीय समूह
खोड समुदाय
- उड़ीसा के जंगलों में रहने वाला खोंड समुदाय के लोग टोलियाँ बना कर शिकार पर निकलते थे और जो हाथ लगता था उसे आपस में बाँट लेते थे। वे जंगलों से मिले फल और जड़ें खाते थे। खाना पकाने के लिए वे साल और महुआ के बीजों का तेल इस्तेमाल करते थे। इलाज के लिए वे बहुत सारी जंगली जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल करते थे और जंगलों से इकट्ठा हुई चीजों को स्थानीय बाजारों में बेच देते थे। जब भी स्थानीय बुनकरों और चमड़ा कारीगरों को कपड़े व चमड़े की रँगाई के लिए कसम और पलाश के फूलों की ज़रूरत होती थी तो वे खोंड समुदाय के लोगों से ही कहते थे।
बैगा समुदाय
- मध्य भारत के बैगा – औरों के लिए काम करने से कतराते थे। बैगा खुद को जंगल की संतान मानते थे जो केवल जंगल की उपज पर ही जिंदा रह सकती है। मज़दूरी करना बैगाओं के लिए अपमान की बात थी ।
ब्रिटिश शासन के दौरान आदिवासी समूहों का जीवन
- अंग्रेज़ अपने शासन के लिए आमदनी का नियमित स्रोत भी चाहते थे। फलस्वरूप उन्होंने ज़मीन के बारे में कुछ नियम लागू कर दिए। उन्होंने ज़मीन को मापकर प्रत्येक व्यक्ति का हिस्सा तय कर दिया। उन्होंने यह भी तय कर दिया कि किसे कितना लगान देना होगा। कुछ किसानों को भूस्वामी और दूसरों को पट्टेदार घोषित किया गया।
- पट्टेदार अपने भूस्वामियों का भाड़ा चुकाते थे और भूस्वामी सरकार को लगान देते थे।
- उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियों के दौरान देश के विभिन्न भागों में जनजातीय समूहों ने बदलते कानूनों, अपने व्यवहार पर लगी पाबंदियों, नए करों और व्यापारियों व महाजनों द्वारा किए जा रहे शोषण के खिलाफ़ कई बार बग़ावत की। 1831-32 में कोल आदिवासियों ने और 1855 में संथालों ने बगावत कर दी थी। मध्य भारत में बस्तर विद्रोह 1910 में हुआ और 1940 में महाराष्ट्र में वर्ली विद्रोह हुआ । बिरसा जिस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे वह भी इसी तरह का विद्रोह था |
वन कानून (Forest laws)
- औपनिवेशिक अधिकारियों ने तय किया कि झूम काश्तकारों को जंगल में जमीन के छोटे टुकड़े दिए जाएँगे और उन्हें वहाँ खेती करने की भी छूट होगी बशर्ते गाँवों में रहने वालों को वन विभाग के लिए मज़दूरी करनी होगी और जंगलों की देखभाल करनी होगी। इस तरह, बहुत सारे इलाकों में वन विभाग ने सस्ते श्रम की आपूर्ति सनिश्चित करने के लिए वन गाँव बसा दिए ।
व्यापार की समस्या
- अठारहवीं सदी में भारतीय रेशम की यूरोपीय बाजारों में भारी माँग थी। भारतीय रेशम की अच्छी गुणवत्ता सबको आकर्षित करती थी और भारत का निर्यात तेजी से बढ़ रहा था। जैसे-जैसे बाज़ार फैला ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसर इस माँग को पूरा करने के लिए रेशम उत्पादन पर ज़ोर देने लगे। वर्तमान झारखण्ड में स्थित हज़ारीबाग के आस-पास रहने वाले संथाल रेशम के कीड़े पालते थे।
नवाबो के हाथ से जाती सत्ता
- अठारहवीं सदी के मध्य से ही राजाओं और नवाबों की ताकत छिनने लगी थी। > 1849 में गवर्नर जनरल डलहौज़ी ने ऐलान किया कि बहादुर शाह ज़फ़र की मृत्यु के बाद बादशाह के परिवार को लाल किले से निकाल कर उसे दिल्ली में कहीं और बसाया जाएगा।
- 1856 में गवर्नर-जनरल कैनिंग ने फ़ैसला किया कि हादुर शाह ज़फ़र आखिरी मुग़ल बादशाह होंगे। उनकी मृत्यु के बाद उनके किसी भी वंशज को बादशाह नहीं जाएगा। उन्हें केवल राजकुमारों के रूप में मान्यता दी जाएगी
- सिपाहियों का समुद्र पार न करनाउस ज़माने में बहुत सारे लोग समुद्र पार नहीं जाना चाहते थे। उन्हें लगता था समुद्र यात्रा से उनका धर्म और जाति भ्रष्ट हो जाएँगे। जब 1824 में सिपाहियों को कंपनी की ओर से लड़ने के लिए समुद्र के रास्ते बर्मा जाने का आदेश मिला तो उन्होंने इस हुक्म को मानने से इनकार कर दिया। उन्हें जमीन के रास्ते से जाने में ऐतराज नहीं था। सरकार का हुक्म न मानने के कारण उन्हें सख्त सज़ा दी गई। क्योंकि यह मुद्दा अभी खत्म नहीं हुआ था इसलिए 1856 में कंपनी को एक नया कानून बनाना पड़ा। इस कानून में साफ़ कहा गया था कि अगर कोई व्यक्ति कंपनी की सेना में नौकरी करेगा तो ज़रूरत पड़ने पर उसे समद्र पार भी जाना पड सकता है।
सुधारों पर प्रतिक्रिया
- अंग्रेजों को लगता था कि भारतीय समाज को सुधारना जरूरी है। सती प्रथा को रोकने और विधवा विवाह को बढ़ावा देने के लिए कानून बनाए गए। अंग्रेजी भाषा की शिक्षा को जमकर प्रोत्साहन दिया गया। 1830 के बाद कंपनी ने ईसाई मिशनरियों को खुलकर काम करने और यहाँ तक कि ज़मीन व संपत्ति जुटाने की भी छूट दे दी।
- 1850 में एक नया कानून बनाया गया जिससे ईसाई धर्म को अपनाना और आसान हो गया। इस कानून में प्रावधान किया गया था कि अगर कोई भारतीय व्यक्ति ईसाई धर्म अपनाता है तो भी पुरखों की संपत्ति पर उसका अधिकार पहले जैसा ही रहेगा। बहुत सारे भारतीयों को यकीन हो गया था कि अंग्रेज़ उनका धर्म, उनके सामा रीति-रिवाज और परंपरागत जीवनशैली को नष्ट कर रहे हैं।
सैनिक विद्रोह जब जनविद्रोह बन गया (1857)
- मेरठ से दिल्ली तक 29 मार्च 1857 को युवा सिपाही मंगल पांडे को बैरकपुर में अपने अफ़सरों पर हमला करने के आरोप में फाँसी पर लटका दिया गया। चंद दिन बाद मेरठ में तैनात कुछ सिपाहियों ने नए कारतूसों के साथ फ़ौजी अभ्यास करने से इनकार कर दिया। सिपाहियों को लगता था कि उन कारतूसों पर गाय और सूअर की चर्बी लेप चढ़ाया गया था। 85 सिपाहियों को नौकरी से निकाल दिया गया। उन्हें अपने अफ़सरों का हुक्म न मानने के आरोप में 10-10 साल की सजा दी गई। यह 9 मई 1857 की बात है ।
- 10 मई को सिपाहियों ने मेरठ की जेल पर धावा बोलकर वहाँ बंद सिपाहियों को आज़ाद करा लिया। उन्होंने अंग्रेज़ अफ़सरों पर हमला करके उन्हें मार गिराया। उन्होंने बंदूक और हथियार कब्जे में ले लिए और अंग्रेजों की इमारतों व संपत्तियों को आग के हवाले कर दिया। उन्होंने फ़िरंगियों के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया । सिपाही पूरे देश में अंग्रेज़ों के शासन को खत्म करने पर आमादा थे।
- मेरठ के कुछ सिपाहियों की एक टोली 10 मई की रात को घोड़ों पर सवार होकर मुँह अँधेरे ही दिल्ली पहुंच गई। जैसे ही उनके आने की ख़बर फैली, दिल्ली में तैनात
टुकड़ियों ने भी बगावत कर दी। यहाँ भी अंग्रेज़ अफसर मारे गए। देशी सिपाहियों ने हथियार व गोला बारूद कब्जे में ले लिया और इमारतों को आग लगा दी। विजयी सिपाही लाल किले की दीवारों के आसपास जमा हो गए। वे बादशाह से मिलना चाहते थे। बादशाह अंग्रेजों की भारी ताकत से दो-दो हाथ करने को तैयार नहीं थे लेकिन सिपाही भी अड़े रहे। आखिरकार वे जबरन महल में घुस गए और उन्होंने बहादुर शाह ज़फ़र को अपना नेता घोषित कर दिया। - बादशाह को सिपाहियों की यह माँग माननी पडी । उन्होंने देश भर के मुखियाओं और शासकों को चिट्ठी लिखकर अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए भारतीय राज्यों का एक संघ बनाने का आह्वान किया। बहादुर शाह के इस एकमात्र कदम के गहरे परिणाम सामने आए।
- एक के बाद एक, हर रेजिमेंट में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और वे दिल्ली, कानपुर व लखनऊ जैसे मुख्य बिंदुओं पर दूसरी टुकड़ियों का साथ देने को निकल पड़े।
- पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना साहेब कानपुर के पास रहते थे। उन्होंने सेना इकट्ठा की और ब्रिटिश सैनिकों को शहर से खदेड़ दिया। उन्होंने खुद को पेशवा घोषित कर दिया। उन्होंने ऐलान किया कि वह बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के गवर्नर हैं। लखनऊ की गद्दी से हटा दिए नवाब वाजिद अली शाह के बेटे बिरजिस कद्र को नया नवाब घोषित कर दिया गया।
- बिरजिस कद्र ने भी बहादुर शाह जफर को अपना बादशाह मान लिया। उनकी माँ बेगम हजरत महल ने अंग्रेजों खिलाफ़ विद्रोहों को बढ़ावा देने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई भी विद्रोही सिपाहियों के साथ जा मिलीं। उन्होंने नाना साहेब के सेनापति तात्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारी चुनौती दी। मध्यप्रदेश के मांडला क्षेत्र में, राजगढ़ की रानी अवन्ति बाई लोधी ने 4,000 सौनिकों की फौज तैयार की और अंग्रेजों के खिलाफ उसका नेतृत्व किया क्योंकि ब्रिटिश शासन ने उनके राज्य के प्रशासन पर नियंत्रण कर लिया था।
कंपनी का पलटवार
- इस उथल-पुथल के बावजूद अंग्रेजों ने हिम्मत नहीं छोड़ी। कंपनी ने अपनी पूरी ताकत लगाकर विद्रोह को कुचलने का फैसला लिया। उन्होंने इंग्लैंड से और फ़ौजी मँगवाए, विद्रोहियों को जल्दी सजा देने के लिए नए कानून बनाए और विद्रोह के मुख्य केंद्रों पर धावा बोल दिया। सितंबर 1857 में दिल्ली दोबारा अंग्रेजों के कब्जे में आ गई। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। उनके बेटों को उनकी आँखों के सामने गोली मार दी गई। बहादुर शाह और उनकी पत्नी बेगम जीनत महल को अक्तूबर 1858 में रंगून जेल में भेज दिया गया। इसी जेल में नवंबर 1862 में बहादर शाह ज़फ़र ने अंतिम सांस ली।
- अंग्रेजो ने 1859 के आखिर तक देश पर दोबारा नियंत्रण पा लिया था |
- ब्रिटिश संसद ने 1858 में एक नया कानून पारित किया और ईस्ट इंडिया कंपनी के सारे अधिकार ब्रिटिश साम्राज्य के हाथ में सौंप दिए |
कपड़ा और लोहा व इस्पात उद्योग (Textile, industries and Steel)
- भारत के पश्चिमी तट पर स्थित सूरत हिंद महासागर के रास्ते होने वाले व्यापार के सबसे महत्त्वपूर्ण बंदरगाहों में से एक था। डच और ब्रिटिश व्यापारिक जहाज़ सत्रहवीं सदी की शुरुआत से ही इस बंदरगाह का इस्तेमाल करने लगे थे। अठारहवीं सदी में इस बंदरगाह का महत्त्व गिरने लगा।
- सूती कपड़े के मशीनी उत्पादन ने उन्नीसवीं सदी में ब्रिटेन को दुनिया का सबसे प्रमुख औद्योगिक राष्ट्र बना दिया था। 1850 के दशक से जब ब्रिटेन का लोहा और इस्पात उद्योग भी पनपने लगा तो ब्रिटेन “दुनिया का कारखाना” (World factory ) कहलाने लगा।
- ब्रिटेन के औद्योगीकरण और भारत पर ब्रिटिश विजय और उपनिवेशीकरण में गहरा संबंध था।
कपड़ा उद्योग (Textile industry)
- 1750 के आस-पास भारत पूरी दुनिया में कपड़ा उत्पादन के क्षेत्र में औरों से कोसों आगे था। भारतीय कपड़े लंबे समय से अपनी गुणवत्ता और बारीक कारीगरी के लिए दुनिया भर में मशहूर थे। दक्षिण-पूर्वी एशिया ( जावा, सुमात्रा और पेनांग ) तथा पश्चिमी एवं मध्य एशिया में इन कपड़ों का भारी व्यापार था ।
- यूरोप के व्यापारियों ने भारत से आया बारीक सूती कपड़ा सबसे पहले मौजूदा ईराक के मोसुल शहर में अरब के व्यापारियों के पास देखा था। इसी आधार पर वे बा बुनाई वाले सभी कपड़ों को “मस्लिन” (मलमल) कहने लगे। जल्दी ही यह शब्द खुब प्रचलित हो गया। मसालों की तलाश में जब पहली बार पुर्तगाली भारत आए तो उन्होंने दक्षिण-पश्चिमी भारत में केरल के तट पर कालीकट में डेरा डाला। यहाँ से वे मसालों के साथ-साथ सूती कपड़ा भी लेते गए । कालीकट से निकले शब्द को “कैलिको” कहने लगे। बाद में हर तरह के सूती कपडे को कैलिको ही कहा जाने लगा।
यूरोपीय बाजारों में भारतीय कपड़ा
- अठारहवीं सदी की शुरुआत तक आते-आते भारतीय कपड़े की लोकप्रियता से बेचैन इंग्लैंड के ऊन व रेशम निर्माता भारतीय कपड़ों के आयात का विरोध करने लगे थे। इसी दबाव के कारण 1720 में ब्रिटिश सरकार ने इंग्लैंड में छापेदार सूती कपड़े – छींट – के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने के लिए एक कानून पारित कर दिया । संयोगवश इस कानून को भी कैलिको अधिनियम (Act) ही कहा जाता था।
- 1764 में जॉन के ने स्पिनिंग जैनी का आविष्कार किया जिससे परंपरागत तकलियों की उत्पादकता काफी बढ़ गई। 1786 में रिचर्ड आर्कराइट ने वाष्प इंजन का आविष्कार किया जिसने सूती कपड़े की बुनाई को क्रान्तिकारी रूप से बदल दिया।
- पटोला बुनाई सूरत, अहमदाबाद और पाटन में होती थी। इंडोनेशिया में इस बुनाई का भारी बाज़ार था और वहाँ यह स्थानीय बनाई परंपरा का हिस्सा बन गई थी।
- स्पिनिंग जैनी एक ऐसी मशीन जिससे एक कामगार एक साथ कई तकलियों पर काम कर सकता था। जब पहिया घूमता था तो सारी तकलियाँ घूमने लगती थीं।
बुनकर (weavers)
- ‘बुनकर आमतौर पर बुनाई का काम करने वाले समुदायों के ही कारीगर होते थे। वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसी हुनर को आगे बढ़ाते थे। बंगाल के तांती, उत्तर भारत के जुलाहे या मोमिन, दक्षिण भारत के साले व कैकोल्लार तथा देवांग समुदाय बुनकरी के लिए प्रसिद्ध थे।
- रंगीन कपड़ा बनाने के लिए रँगरेज़ इस धागे को रंग देते थे। छपाईदार कपड़ा बनाने के लिए बुनकरों को चिप्पीगर नामक माहिर कारीगरों की ज़रूरत होती थी जो ठप्पे से छपाई करते थे।
भारतीय कपड़े का पतन
- इंग्लैंड में बने सूती कपड़े ने उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक भारतीय कपड़े को अफ्रीका, अमरीका और यूरोप के परंपरागत बाज़ारों से बाहर कर दिया था। इसकी वजह से हमारे यहाँ के हज़ारों बुनकर बेरोजगार हो गए। सबसे बुरी मार बंगाल के बुनकरों पर पड़ी।
- 1830 के दशक तक भारतीय बाज़ार ब्रिटेन में बने सूती कपड़े से पट गए। दरअसल, 1880 के दशक तक स्थिति यह हो गई थी कि भारत के लोग जितना सूती कपड़ा पहनते थे उसमें से दो तिहाई ब्रिटेन का बना होता था। इससे न केवल बुनकरों बल्कि सूत कातने वालों की भी हालत खराब होती गई। जो लाखों ग्रामीण महिलाएँ सूत कातकर ही अपनी आजीविका चला रही थीं वे बेरोज़गार हो गई।
- राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने भी लोगों से आह्वान किया कि वे आयातित कपडे का बहिष्कार करें और हाथ से कते सूत और हाथ से बुने कपड़े ही पहनें। इस तरह खादी राष्ट्रवाद का प्रतीक बनती चली गई। चरखा भारत की पहचान बन गया और 1931 में उसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तिरंगे झंडे की बीच वाली पटटी में जगह दी गई।
सूती कपड़ा मिलों का उदय
- भारत में पहली सूती कपडा मिल 1854 में बम्बई में स्थापित हुई। यह कताई मिल थी ।
- भारत में औद्योगिक सूती वस्त्रोत्पादन की पहली बडी लहर प्रथम विश्व युद्ध के समय दिखाई दी जब ब्रिटेन से आने वाले कपड़े की मात्रा में काफी कमी आ गई थी और सैनिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय कारखानों से कपडे का उत्पादन ढ़ाने की माँग की जाने लगी।
लोहा व इस्पात उद्योग (Iron And Steel Industry)
- रझारा पहाड़ियाँ दुनिया के सबसे बेहतरीन लौह अयस्क भंडारों में से एक थीं।
- अगरिया जैसे कई समुदाय लोहा बनाने में माहिर थे। अगरिया समुदाय के लोगों ने लौह अयस्क का एक और स्रोत ढूँढने में मदद से बाद में भिलाई स्टील संयंत्र को अयस्क की आपूर्ति की गई।
- कुछ साल बाद सुबर्णरेखा नदी के तट पर सारा जंगल साफ करके फैक्ट्री और एक औद्योगिक शहर बसाने के लिए जगह बनाई गई। इस शहर को जमशेदपुर का नाम दिया गया। इस स्थान पर लौह अयस्क भंडारों के निकट ही पानी भी उपलब्ध था। यहाँ टाटा आयरन एण्ड स्टील कम्पनी (टिस्को) की स्थापना हुई जिसमें 1912 से स्टील का उत्पादन होने लगा।
टीपू सुल्तान की तलवार और वुटज़ स्टील
- टीपू सुल्तान की तलवार की धार इतनी सख्त और पैनी थी कि वह दुश्मन के लौह- कवच को भी आसानी से चीर सकती थी । इस तलवार में यह गुण कार्बन की अधिक मात्रा वाली वुटज़ नामक स्टील से पैदा हुआ था जो पूरे दक्षिण भारत में बनाया था। इस वुट्ज़ स्टील की तलवारें बहुत पैनी और लहरदार होती थीं। इनकी यह बनावट लोहे में गडे कार्बन के बेहद सक्ष्म कणों से पैदा होती थी।
प्राच्यवाद की परंपरा (Tradition Of Orientalism)
- सन् 1783 में विलियम जोन्स नाम के एक सज्जन कलकत्ता आए। उन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित किए गए सुप्रीम कोर्ट में जनियर जज के पद पर तैनात किया गया था। कानन का माहिर होने के साथ-साथ जोन्स एक भाषाविद भी थे।
- जोन्स ने एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल का गठन किया और एशियाटिक रिसर्च नामक शोध पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया।
- जोन्स और कोलबुक भारत के प्रति एक खास तरह का रवैया रखते थे। वे भारत और पश्चिम, दोनों की प्राचीन संस्कृतियों के प्रति गहरा आदर भाव रखते थे। उनका मानना था कि हिंदुओं और मुसलमानों के असली विचारों व कानूनों को इन्हीं रचनाओं के ज़रिए समझा जा सकता है और इन रचनाओं के ध्ययन से ही भारत के भावी विकास का आधार पैदा हो सकता है।
- इस प्रक्रिया में अंग्रेज़ भारतीय संस्कृति के अभिभावक और मालिक, दोनों की भूमिकाएँ निभा रहे थे।
- हेस्टिंग्स तथा अन्य प्राच्यवादी भारतीय विद्वानों से विभिन्न भारतीय भाषाएँ सीखना चाहते थे जिन्हें वह कई बार केवल बोलियाँ समझते और ‘वर्नाकुलर’ का नाम देते थे।
- हेस्टिंग्स ने पहल करके कलकत्ता मदरसे की स्थापना की और उनका विश्वास था कि यहाँ के प्राचीन रीति-रिवाज़ और यहाँ की ज्ञान संपदा ही भारत में ब्रिटिश शासन के आधार होने चाहिए ।
* प्राच्यवादी (Orientalist) – एशिया की भाषा और संस्कृति का गहन ज्ञान रखने वाले लोग।
* मुंशी – ऐसा व्यक्ति जो फारसी पढ़ना, लिखना और पढ़ाना जानता
* वर्नाकुलर – यह शब्द आमतौर पर मानक भाषा से अलग किसी स्थानीय भाषा या बोली के लिए इस्तेमाल किया जाता है। भारत जैसे औपनिवेशिक देशों में अंग्रेज़ रोजमर्रा इस्तेमाल की स्थानीय भाषाओं और साम्राज्यवादी शासकों की भाषा अंग्रेजी के बीच फर्क को चिह्नित करने के लिए इस शब्द का इस्तेमाल करते थे।
व्यवसाय के लिए शिक्षा
- 1854 में ईस्ट इंडिया कंपनी के लंदन स्थित कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने भारतीय गवर्नर जनरल को शिक्षा के विषय में एक नोट भेजा। कंपनी के नियंत्रक मंडल के अध्यक्ष चार्ल्स वुड के नाम से जारी किए गए इस संदेश को वुड का नीतिपत्र ( वुड्स डिस्पैच) के नाम से जाना जाता है। इस दस्तावेज़ में भारत में लागू की जाने वाली नीति की रूपरेखा स्पष्ट करते हुए एक बार फिर दोहराया गया है कि प्राच्यवादी ज्ञान के स्थान पर यूरोपीय शिक्षा को अपनाने से कितने व्यावहारिक लाभ प्राप्त होंगे।
- वुड के नीतिपत्र में यह तर्क भी दिया गया था कि यूरोपीय शिक्षा से भारतीयों के नैतिक चरित्र (Moral character) का उत्थान होगा। इससे वे ज़्यादा सत्यवादी और ईमानदार बन जाएंगे और फलस्वरूप कंपनी के पास भरोसेमं कर्मचारियों की कमी नहीं रहेगी।
- 1857 में जब मेरठ और दिल्ली में सिपाही विद्रोह कर रहे थे उसी समय कलकत्ता, मद्रास और बम्बई विश्वविद्यालयों की स्थापना की जा रही थी। स्कूली शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन के प्रयास भी किए गए।
विलियम एडम की रिपोर्ट
- 1830 के दशक में शिक्षा का तरीका काफी लचीला था। बच्चों की फीस निश्चित नहीं थी। छपी हुई किताबें नहीं होती थी। सालाना इम्तेहान और नियमित समय-सारणी जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी।
- बच्चों की फीस उनके माँ-बाप की आमदनी से तय होती थी : अमीरों को ज्यादा और गरीबों को कम फीस देनी पड़ती थी । शिक्षा मौखिक होती थी और क्या पढ़ाना है यह बात विद्यार्थियों की ज़रूरतों को देखते हुए गुरु ही तय करते थे। विद्यार्थियों को अलग कक्षाओं में नहीं बिठाया जाता था। सभी एक जगह एक साथ बैठते थे।
- फसलों की कटाई के समय कक्षाएँ बंद हो जाती थीं क्योंकि उस समय गाँव के बच्चे प्रायः खेतों में काम करने चले जाते थे। कटाई और अनाज निकल जाने के बाद पाठशाला दोबारा शुरू हो जाती थी ।
अरविंदों घोष
- अरविंदों घोष ने 15 जनवरी 1908 को बॉम्बे (मुंबई) में अपने एक सम्भाषण में राष्ट्रीय शिक्षा पर बोलते हुए क कि इसका लक्ष्य छात्रों में राष्ट्रीयता का भाव जागृत करना है। इसके लिए अपने पूर्वजों के साहसिक कार्यों पर गहराई से चिंतन करना आवश्यक होगा। शिक्षा को मातृ-भाषा (Mother toungue) में होना चाहिए ताकि यह अधिक-से- अधिक लोगों तक पहुंच सके। अरविंदो ने इस बात पर बल | दिया कि यद्यपि छात्रों को अपने मूल के साथ जुड़े रहना चाहिए, फिर भी उनको आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों तथा लोकप्रिय शासन व्यवस्था के संदर्भ में पश्चिमी देशों के अनुभव का भी भरपूर लाभ उठाना चाहिए। इसके अतिरिक्त छात्रों को कोई हस्तकला (Handicraft) भी सीखनी चाहिए ताकि वे स्कूल छोड़ने पर यथा संभव रोजगार पा सकें।
महात्मा गांधी
- महात्मा गांधी की दृढ़ मान्यता थी कि शिक्षा केवल भारतीय भाषाओं में ही दी जानी चाहिए। उनके मुताबिक, अंग्रेज़ी में दी जा रही शिक्षा भारतीयों को अपाहिज बना देती है, उसने उन्हें अपने सामाजिक परिवेश से काट दिया है और उन्हें “ अपनी ही भूमि पर अजनबी बना दिया है। उनकी राय में, विदेशी भाषा बोलने वाले, स्थानीय संस्कृति से घृणा करने वाले अंग्रेज़ी शिक्षित भारतीय अपनी जनता से जुड़ने के तौर-तरीके भूल चुके थे।
रवीन्द्रनाथ टैगोर
- रवीन्द्रनाथ टैगोर ने “शांतिनिकेतन” संस्था की स्थापना 1901 में की थी।
- टैगोर का मानना था कि सृजनात्मक शिक्षा को केवल प्राकृतिक परिवेश में ही प्रोत्साहित किया जा सकता है। इसीलिए उन्होंने कलकत्ता से 100 किलोमीटर दूर एक ग्रामीण परिवेश में अपना स्कूल खोलने का फैसला लिया।
- उन्हें यह जगह निर्मल शांति से भरी (शांतिनिकेतन ) दिखाई दी जहाँ प्रकृति के साथ जीते हुए बच्चे अपनी स्वाभाविक सृजनात्मक मेधा को और विकसित कर सकते थे।
राजा राममोहन
- राजा राममोहन रॉय ने कलकत्ता में ब्रह्मो सभा के नाम से एक सुधारवादी संगठन बनाया था (जिसे बाद में ब्रह्मो समाज के नाम से जाना गया ) |
- राममोहन रॉय इस बात से काफी दुखी थे कि विधवा औरतों को अपनी ज़िदंगी में भारी कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सती प्रथा के खिलाफ़ मुहिम छेड़ी थी।
- राममोहन रॉय संस्कृत, फ़ारसी तथा अन्य कई भारतीय एवं यूरोपीय भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने अपने लेखन के ज़रिए यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि प्राचीन ग्रंथों में विधवाओं को जलाने की अनुमति कहीं नहीं दी गई है।
- 1829 में सती प्रथा पर पाबंदी लगा दी गई।
स्वामी दयानंद सरस्वती
स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की थी। आर्य समाज ने हिंदू धर्म को सुधारने का प्रयास किया था। इन्होने विधवा विवाह का भी समर्थन किया।
महिलाएं, जाति एवं सुधार
- दो सौ साल पहले हालात बहुत भिन्न थे। ज़्यादातर बच्चों की शादी बहुत कम उम्र में ही कर दी जाती थी। हिंदू व मुसलमान, दोनों धर्मों के पुरुष एक से ज्यादा पत्नियाँ रख सकते थे। देश के कुछ भागों में विधवाओं से ये उम्मीद की जाती थी कि वे अपने पति की चिता के साथ ही जिंदा जल जाएँ। इस तरह स्वेच्छा से या जबरदस्ती मार दी गई महिलाओं को “सती” कहकर महिमामंडित किया जाता था। ‘सती’ शब्द का अर्थ ही सदाचारी महिला (Virtuous woman) था। संपत्ति पर भी महिलाओं के अधिकार बहुत सीमित थे। शिक्षा तक महिलाओं की प्राय: कोई पहँच नहीं थी। देश के बहत सारे भागों में लोगों का विश्वास था कि अगर औरत पढी-लिखी होगी तो वह जल्दी विधवा (widow) हो जाएगी।
- समाज में सिर्फ स्त्रियों और पुरुषों के बीच ही फर्क नहीं था। ज्यादातर इलाकों में लोग जातियों में भी बँटे हुए थे। ब्राह्मण और क्षत्रिय “खुद को “ऊँची जाति” का मानते थे। इसके बाद व्यापार और महाजनी आदि से जुड़ जातियों (जिन्हें प्रायः वैश्य कहा जाता था) का स्थान आता था। फिर काश्तकार, बुनकर व कुम्हार जैसे दस्तकार आ थे (जिन्हें शूद्र कहा जाता था)। इस श्रेणीक्रम की सबसे निचली पायदान पर ऐसी जातियाँ थीं जो गाँवों शहरों को साफ-सुथरा रखती थीं या ऐसे काम धंधे करती थीं जिन्हें ऊँची जातियों के लोग “दूषित कार्य” मानते थे यानी ऐसे काम जिनकी वजह से उनकी जाति ‘भ्रष्ट’ हो जाती थी। ऊँची जातियाँ निचले पायदान पर खडी इन जातियों के लोगों को “अछूत” मानती थीं। इन लोगों को मंदिरों में प्रवेश करने, सवर्ण जातियों के इस्तेमाल वाले कुओं से पानी निकालने या ऊँची जातियों के अधिपत्य वाले घाट- तालाबों पर नहाने की छट नहीं होती थी। उन्हें निम्न दर्जे का मनुष्य माना जाता था।
महिलाएं एवं शिक्षा (Women and Education)
- कलकत्ता में विद्यासागर और बंबई में कई अन्य सुधारकों ने लड़कियों के लिए स्कूल खोले।
- उन्नीसवीं शताब्दी में, ज्यादातर महिलाएं जो पढ़ और लिख सकती थीं, उन्हें उनके उदार पिता या पति ने घर पर ही पढ़ाया था। कई महिलाओं ने बिना किसी मदद के खुद पढ़ना-लिखना सीख लिया।
- उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम भाग में आर्य समाज द्वारा पंजाब में और ज्योतिराव फुले द्वारा महाराष्ट्र में लड़कियों के लिए स्कूल खोले गए।
- उत्तर भारत के संभ्रांत मुस्लिम परिवारों की महिलाओं ने कुरान शरीफ को अरबी में पढ़ना सीखना शुरू किया। उन्हें घर पर पढ़ाने के लिए शिक्षकों को काम पर रखा गया था। इस स्थिति को देखते हुए मुमताज अली जैसे कुछ सुधारक
- उन्होंने कुरान शरीफ की आयतों का हवाला देते हुए कहा कि महिलाओं को भी शिक्षा का अधिकार मिलना चाहिए। उन्नीसवीं सदी के अंत में उर्दू में उपन्यासों का सिलसिला शुरू हुआ।
- इन उपन्यासों में महिलाओं को धर्म और घरेलू रखरखाव के बारे में पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया गया था।
- भोपाल की बेगमों ने अलीगढ़ में लड़कियों के लिए प्राथमिक विद्यालय खोला। बेगम रुकैया सखावत हुसैन भी इस दौर की एक प्रभावशाली महिला थीं जिन्होंने कलकत्ता और पटना में मुस्लिम लड़कियों के लिए स्कूल खोले। वह रूढ़िवादी विचारों की आलोचक थीं और उनका मानना था कि हर धर्म के धार्मिक नेता महिलाओं को निम्न स्थिति में रखते हैं।
- 1880 के दशक तक, भारतीय महिलाओं ने विश्वविद्यालयों में दाखिला लेना शुरू कर दिया था। कई महिलाओं ने लेखन शुरू किया और समाज में महिलाओं की स्थिति पर अपने आलोचनात्मक विचारों को प्रकाशित किया।
- पूना में गृह-शिक्षित, ताराबाई शिंदे ने स्त्रीपुरुषतुलना नामक एक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें पुरुषों और महिलाओं के बीच सामाजिक अंतर की आलोचना की गई थी।
- महान संस्कृत विद्वान पंडिता रमाबाई का मानना था कि हिंदू धर्म महिलाओं पर अत्याचार करता है। उन्होंने उच्च जाति की हिंदू महिलाओं की दुर्दशा पर एक किताब भी लिखी। उन्होंने पूना में एक विधवा गृह की स्थापना की जहां ससुराल वालों के अत्याचारों का सामना करने वाली महिलाओं को आश्रय दिया जाता था। इन महिलाओं को ऐसी बातें सिखाई जाती थी जिससे वे अपनी आजीविका चला सकें।
बाल विवाह (Child Marriage)
- बाल विवाह निषेध अधिनियम 1929 में पारित किया गया था। इस कानून के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु के लड़के और 16 वर्ष से कम आयु की लड़की का विवाह नहीं किया जा सकता है। बाद में यह आयु क्रमशः 21 वर्ष और 18 वर्ष कर दी गई।
जाति और समाज सुधार (Caste And Social Reform)
- जाति उन्मूलन के लिए काम करने के लिए बम्बई में 1840 में परमहंस मंडली का गठन किया गया।
- मौजूदा आंध्र प्रदेश में मदिगा एक महत्वपूर्ण “अछूत” जाति रही है। वे पशुओं के शवों को साफ करने, चमडा तैयार करने और चप्पल जूतियाँ सीने में माहिर थे।
- अछूत माने जाने वाले महार समुदाय के बहत सारे लोगों को महार रेजीमेंट में नौकरी मिल गई। दलित आंदोलन नेता बी.आर. अम्बेडकर के पिता एक सैनिक स्कूल में ही पढ़ाते थे।
- बम्बई प्रेजीडेंसी में 1829 में भी अछूतों को सरकारी स्कूलों में घुसने नहीं दिया जाता था। जब उन्होंने इस अधिकार के लिए सख्ती से आवाज़ उठाई तो उन्हें कक्षा के बाहर बरामदे में बैठकर सबक सुनने की इजाजत दे दी गई ताकि वे कमरे को “दूषित ” न कर सकें जहाँ ऊँची जाति के लड़कों को पढ़ाया जाता था ।
- दुबला मजदुर सवर्ण ज़मींदारों के पास मज़दूरी करते थे। वे उनके खेत सँभालते थे और जमींदार के घर-आँगन में तमाम छोटे-बड़े काम करते थे।
समानता और न्याय की मांग (Demands For Equality And Justice)
- मध्य भारत में सतनामी आंदोलन की शुरुआत घासीदास ने की, जिन्होंने चमड़े का काम करने वालों को संगठित किया और उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए आंदोलन छेड़ दिया। पूर्वी बंगाल में हरिदास ठाकुर के मतुआ पंथ ने चांडाल काश्तकारों के बीच काम किया। हरिदास ने जाति व्यवस्था को सही ठहराने वाले ब्राह्मणवादी ग्रंथों पर सवाल उठाया। जिसे आज केरल कहा जाता है, वहाँ ऐझावा जाति के श्री नारायण गुरु लोगों के बीच एकता का आदर्श रखा। उन्होंने जातिगत भिन्नता के आधार पर लोगों के बीच भेदभाव करने का विरोध किया। उनके अनुसार सारी मानवता की एक ही जाति है। उनका एक महत्वपूर्ण कथन था – ‘ओरु जाति, ओरु मतम, ओरु दैवम मनुष्यानु’ (मानवता की एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर )
गुलामगिरी (GulamGiri)
- “गुलामगिरी” 19वीं शताब्दी में ज्योतिराव फुले द्वारा लिखित एक पुस्तक है, जिसका अर्थ है “गुलामी”। पुस्तक भारत में जाति व्यवस्था और निचली जातियों के उत्पीड़न की आलोचना करती है।
- “गुलामगिरी” की नैतिकता यह है कि जाति के आधार पर भेदभाव अनैतिक और अन्यायपूर्ण है। यह सामाजिक सुधार और सभी व्यक्तियों के लिए समान अवसरों की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है, भले ही उनकी जाति या सामाजिक स्थिति कुछ भी हो।
- पुस्तक शिक्षा के माध्यम से निचली जातियों के सशक्तिकरण और जाति व्यवस्था के उन्मूलन का आह्वान करती है। यह व्यक्तियों को सामाजिक असमानताओं के खिलाफ लड़ने और एक न्यायसंगत और समतामूलक समाज के लिए प्रयास करने के लिए प्रेरित करता है।
- “निम्न जाति” नेताओं में ज्योतिराव फुले सबसे मुखर नेताओं में से थे। 1827 में जन्मे ज्योतिराव ईसाई प्रचारकों द्वारा खोले गए स्कूलों में शिक्षा थी। उन्होंने जाति आधारित समाज में फैले अन्याय बारे में अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने ब्राह्मणों के इस दावे पर खुलकर हमला बोला कि आर्य होने कारण वे औरों से श्रेष्ठ हैं। फुले का तर्क था कि आर्य विदेशी थे, जो उपमहाद्वीप (Subcontinent) के बाहर से आए थे और उन्होंने इस मिट्टी के असली वारिसों आर्यों के आने से पहले यहाँ रह रहे मूल निवासियों को हराकर उन्हें गुलाम बना लिया था। जब आर्यों ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया तो वे पराजित जनता को नीच, निम्न जाति वाला मानने लगे। फुले के अनुसार, “ऊँची” जातियों का उनकी ज़मीन और सत्ता पर कोई अधिकार नहीं है : यह धरती यहाँ के देशी लोगों की, कथित निम्न जाति के लोगों की है।
- फुले ने दावा किया कि आर्यों के शासन से पहले यहाँ स्वर्ण युग था । तब योद्धा – किसान ज़मीन जोतते थे और मराठा देहात पर न्यायसंगत और निष्पक्ष तरीके से शासन करते थे। उन्होंने सुझाव दिया कि शूद्रों (श्रमिक जातियाँ) और अतिशूद्रों (अछूत) को जातीय भेदभाव खत्म करने के लिए संगठित होना चाहिए। फुले द्वारा स्थापित किए गए सत्यशोधक समाज नामक संगठन ने जातीय समानता के समर्थन में मुहिम चलाई।
- 1873 में फुले ने गुलामगीरी (गुलामी) नामक एक किताब लिखी। इससे लगभग दस साल पहले अमेरिकी गृह युद्ध हो चुका था जिसके फलस्वरूप अमरीका में दास प्रथा खत्म कर दी गई थी। फुले ने अपनी पुस्तक उन सभी अमरीकियों को समर्पित की जिन्होंने गुलामों को मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष किया था। इस तरह उन्होंने भारत की “निम्न” जातियों और अमरीका के काले गुलामों दुर्दशा को एक-दूसरे से जोड़ दिया।
गैर-ब्राह्मण आंदोलन
- बीसवीं सदी के आरंभ में गैर-ब्राह्मण आंदोलन शुरू हुआ। यह प्रयास उन गैर-ब्राह्मण जातियों का था जिन्हें शिक्षा, धन और प्रभाव हासिल हो चुका था। उनका तर्क था ब्राह्मण तो उत्तर से आए उन आर्य आक्रमणकारियों के वंशज हैं जिन्होंने यहाँ के मूल निवासियों – देशी द्रविड नस्लों – को हराकर दक्षिणी भूभाग पर विजय हासिल की थी। उन्होंने सत्ता पर ब्राह्मणवादी दावे को भी चुनौती दी।
- पेरियार के नाम से प्रसिद्ध ई.वी. रामास्वामी नायकर एक मध्यवर्गीय परिवार में पले-बढ़े थे। अपने प्रारंभिक जीवन में वे संन्यासी थे और उन्होंने संस्कृत शास्त्रों का गंभीरता से अध्ययन किया था।
- उन्होंने स्वाभिमान आंदोलन शुरू किया। उनका कहना था कि मूल तमिल और द्रविड संस्कृति के असली वाहक अछुत ही हैं जिन्हें ब्राह्मणों ने अपने अधीन कर लिया है। उनका मानना था कि सभी धार्मिक नेता और मुखिया सामाजिक विभाजनों और असमानता को ईश्वरप्रदत्त मानते हैं इसलिए सामाजिक समानता के लिए सभी धर्मों से अछूतों को खुद मुक्ति पानी होगी।
- पेरियार हिंदू वेद पुराणों के कट्टर आलोचक थे। खासतौर से मनु द्वारा रचित संहिता, भगवदगीता और रामायण के वे कटु आलोचक थे। उनका कहना था कि ब्राह्मणों ने निचली जातियों पर अपनी सत्ता तथा महिलाओं पर पुरुषों का प्रभुत्व स्थापित करने के लिए इन पुस्तकों का सहारा लिया है।
ब्रह्मो समाज
- ब्रह्मो समाज की स्थापना 1830 में की गई थी। यह संस्था सभी प्रकार की मूर्ति पूजा और बलि के विरुद्ध थी और इसके अनुयायी उपनिषदों में विश्वास रखते थे। इसके सदस्यों को अन्य धार्मिक प्रथाओं या परंपराओं की आलोचना करने का अधिकार नहीं था। ब्रह्मो समाज ने विभिन्न धर्मों के आदर्शों – खास तौर से हिंदुत्व और ईसाई धर्म – के विचारों की आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए उनके नकारात्मक और सकारात्मक पहलुओं पर प्रकाश डाला। केशव चंद्र सेन ब्रह्मो समाज के मुख्य नेताओं में से एक थे।
डेरोजियो एवं यंग बंगाल
- 1820 के दशक में हेनरी लुई विवियन डेरोजियो हिंदू कॉलेज कलकत्ता में अध्यापक थे। उन्होंने अपने विद्यार्थियों को आमूल परिवर्तनकारी विचारों से अवगत कराया और उन्हें तमाम तरह की सत्ता पर सवाल खड़ा करने के लिए प्रोत्साहित किया। उनके द्वारा शुरू की गई यंग बंगाल मूवमेंट में उनके विद्यार्थियों ने परंपराओं और रीति-रिवाजों पर उँगली उठाई. महिलाओं के लिए शिक्षा की माँग की और सोच व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अभियान चलाया।
रामकृष्ण मिशन और विवेकानंद
- रामकृष्ण मिशन का नाम स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम पर रखा गया था। यह मिशन समाज सेवा और निस्वार्थ श्रम के जरिए मुक्ति के लक्ष्य पर जोर देता था स्वामी विवेकानंद (1863-1902) जिनका मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त था, उन्होंने श्री रामकृष्ण की सरल शिक्षाओं को अपने प्रतिभाशाली संतुलित आधुनिक विचारधारा से जोड़ कर संपूर्ण विश्व में प्रसारित किया। 1893 में शिकागो में विश्व धर्म संसद में उन्हें सुनने के बाद न्यूयॉर्क हेराल्ड ने विवरण दिया कि, “ऐसे विद्वान राष्ट्र में धर्म प्रचारकों को भेजना कितना मूर्खतापूर्ण है”। वास्तव में, स्वामी विवेकानंद आधुनिक समय के पहले भारतीय थे जिन्होंने विश्वव्यापी स्तर पर वेदांत दर्शन के आध्यात्मिक गौरव को पुनर्स्थापित किया लेकिन उनका उद्देश्य केवल धर्म की व्याख्या करना नहीं था। अपने देशवासियों की निर्धनता और दुर्दशा से उन्हें अतिशय दुःख हुआ । उनका यह ढ था कि कोई भी सधार तभी सफल हो सकता है जब जनसमूह की दशा उन्नत हो। अत: भारत के लोगों को उन्होंने ‘रसोईघर के धर्म की संकीर्ण चारदीवारी से बाहर निकलने और राष्ट्र की सेवा में एक जुट होने का आहवान किया।
प्रार्थना समाज
- 1867 में बम्बई में स्थापित प्रार्थना समाज ने जातीय बंधनों को खत्म करने और बाल विवाह के उन्मूलन के लिए प्रयास किया। प्रार्थना समाज ने महिलाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित किया और विधवा विवाह पर लगी पाबंदी के खिलाफ आवाज उठाई। उसकी धार्मिक बैठकों में हिंदू, बौद्ध और ईसाई ग्रंथों पर विचार-विमर्श किया जाता था।
वेद समाज
- मद्रास (चेन्नई) में 1864 में वेद समाज की स्थापना हुई । वेद समाज ब्रह्मो समाज से प्रेरित था। वेद समाज ने जातीय भेदभाव को समाप्त करने और विधवा विवाह तथा महिला शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए काम किया। इसके सदस्य एक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते थे। उन्होंने रूढ़िवादी (Conservative) हिंदुत्व के अंधविश्वासों और अनुष्ठानों (Rituals) की सख्त निदा की ।
अलीगढ़ आंदोलन
- सैय्यद अहमद खाँ द्वारा 1875 में अलीगढ़ में खोले गए मोहम्मदन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज को ही बाद में अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के नाम से जाना गया। यहाँ
मुसलमानों को पश्चिमी विज्ञान के साथ-साथ विभिन्न विषयों की आधुनिक शिक्षा जाती थी। अलीगढ़ आंदोलन का शैक्षणिक सुधारों के क्षेत्र में गहरा प्रभाव रहा है।
सिंह सभा आंदोलन
- सिखों के सुधारवादी संगठन के रूप में सिंह सभाओं की स्थापना 1873 में अमृतसर से शुरू हुई थी। बाद में 1879 में लाहौर में भी सिंह सभा का गठन किया गया। इन सभाओं ने सिख धर्म को अंधविश्वासों, जातीय भेदभाव और ऐसे आचरण जिसे वे गैर-सिख समझती थीं, से मुक्त कराने का प्रयास किया। उन्होंने सिखों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया जिसमें अकसर आधुनिक ज्ञान के साथ-साथ सिख धर्म के के सिद्धांतों को भी पढाया जाता था।
- खालसा कॉलेज, अमृतसर। 1892 में सिख सभा आदोलन के नेताओं द्वारा स्थापित किया गया।
राष्टवाद का उदय
(The Emergence of Nationalism)
- भारत का मतलब है यहां के लोग भारत वर्ग, रंग, जाति, पंथ, भाषा या लिंग के बावजूद यहां रहने वाले सभी लोगों का घर है। यह देश और इसके सारे संसाधन और इसके सारे सिस्टम इन सबके लिए हैं। इस जवाब से यह अहसास हुआ कि भारत के संसाधनों और यहां के लोगों के जीवन पर अंग्रेजों का नियंत्रण था और जब तक यह नियंत्रण नहीं हटाया जाता, तब तक भारत अपने लोगों और अपने भारतीयों का नहीं हो सकता
- 1870 और 1880 के दशक में बने राजनीतिक संगठनों में यह चेतना और गहरी हुई। इनमें से अधिकांश संगठनों के प्रमुख अंग्रेजी पढ़े-लिखे पेशेवर थे, जैसे वकील आदि। पूना सार्वजनिक सभा, इंडियन एसोसिएशन, मद्रास महाजन सभा, बॉम्बे रेजीडेंसी एसोसिएशन, इंडियन नेशनल कांग्रेस आदि ऐसे प्रमुख संगठन थे।
- सम्प्रभुता (Sovereignty) एक आधुनिक विचार और राष्ट्रवाद का बुनियादी तत्व होता है। ये संगठन इस धारणा से चलते थे कि भारतीय जनता को अपने मामलों के बारे में फैसले लेने की आजादी होनी चाहिए |
- 1870 और 1880 के दशक में ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष गहरा गया। 1878 ई. में शस्त्र अधिनियम पारित किया गया जिसके द्वारा भारतीयों से शस्त्र रखने का अधिकार छीन लिया गया। सरकार की आलोचना करने वालों को चुप कराने के लिए उसी वर्ष वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट भी पारित किया गया था। इस कानून में यह प्रावधान था कि यदि किसी अखबार में कोई आपत्तिजनक चीज छपती है तो सरकार प्रिंटिंग प्रेस सहित उसकी सारी संपत्ति जब्त कर सकती है। 1883 में सरकार ने इल्बर्ट बिल को लागू करने की कोशिश की। इसको लेकर काफी बवाल भी हुआ था। इस विधेयक में प्रावधान था कि भारतीय न्यायाधीश ब्रिटिश या यूरोपीय व्यक्तियों पर भी मुकदमा चला सकते हैं ताकि भारत में कार्यरत ब्रिटिश और भारतीय न्यायाधीशों के बीच समानता स्थापित की जा सके। अंग्रेजों के विरोध के कारण जब सरकार ने इस विधेयक को वापस ले लिया तो भारतीयों ने इसका काफी विरोध किया। इस घटना ने अंग्रेजों का भारत के प्रति वास्तविक रवैया दिखाया। 1885 में, देश भर के 72 प्रतिनिधियों ने बंबई में मुलाकात की और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का फैसला किया। संगठन के शुरुआती नेताओं में दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, बदरुद्दीन तैयब जी, डब्ल्यू. सी. बनर्जी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, रोमेशचंद्र दत्त, एस. सुब्रमण्यम अय्यर और अन्य ज्यादातर बंबई और कलकत्ता से थे। नौरोजी एक व्यापारी और प्रचारक थे। वह लंदन में रहे और कुछ समय के लिए ब्रिटिश संसद के सदस्य भी रहे। उन्होंने युवा राष्ट्रवादियों का मार्गदर्शन किया। सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारी A.O. विभिन्न क्षेत्रों के भारतीयों को करीब लाने में भी यम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- भारतीयों की माँग थी कि न्यायपालिका (Judiciary) को कार्यपालिका से अलग किया जाए, आर्म्स एक्ट को निरस्त किया जाए और अभिव्यक्ति व बोलने की स्वतंत्रता दी जाए।
- 1890 के दशक तक, बहुत से लोग कांग्रेस के राजनीतिक तरीकों पर सवाल उठाने लगे थे। बंगाल, पंजाब और महाराष्ट्र में बिपिनचंद्र पाल। बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय जैसे नेता अधिक क्रांतिकारी उद्देश्यों और तरीकों की दिशा में काम कर रहे थे। उन्होंने “अनुरोध की राजनीति” के लिए नरमपंथियों की आलोचना की और आत्मनिर्भरता और रचनात्मक कार्य के महत्व पर बल दिया। उन्होंने कहा कि लोगों को अपनी ताकत पर भरोसा करना चाहिए न कि सरकार के “नेक” इरादों पर। तिलक ने नारा दिया- “स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा!”
बंगाल का विभाजन
(Partition of Bengal)
- 1905 में वायसराय कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया। उस वक्त बंगाल ब्रिटिश भारत का सबसे बड़ा प्रांत था। बिहार और उड़ीसा के कुछ भी उस समय बंगाल का हिस्सा थे।
- बंगाल के विभाजन से देश भर में गुस्से की लहर गई। मध्यमार्गी और आमूल परिवर्तनवादी, कांग्रेस के सभी धड़ों ने इसका विरोध किया। विशाल जनसभाओं का आयोजन किया गया और जुलूस निकाले गए । जनप्रतिरोध के नए-नए रास्ते ढूँढ़े गए। इससे जो संघर्ष उपजा उसे स्वदेशी लन के नाम से जाना जाता है। यह आंदोलन बंगाल में सबसे ताकतवर था
- आंध्र के डेल्टा इलाकों में इसे वन्देमातरम आंदोलन के नाम से जाना जाता था।
- स्वदेशी आंदोलन ने ब्रिटिश शासन का विरोध किया और स्वयं सहायता, स्वदेशी उद्यमों, राष्ट्रीय शिक्षा और भारतीय भाषा के उपयोग को बढ़ावा दिया। स्वराज के लिए आमूल परिवर्तनवादी ने जनता को लामबंद करने और ब्रिटिश संस्थानों व वस्तुओं के बहिष्कार पर जोर दिया। कुछ लोग ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए “क्रांतिकारी हिंसा” के समर्थक थे।
ऑल इंडिया मुसलिम लीग
- 1906 में मुसलमान ज़मींदारों और नवाबों के एक समूह ने ढाका में ऑल इंडिया मुसलिम लीग का गठन किया। लीग ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया। लीग की माँग थी कि मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचिका (Electoral) की व्यवस्था की जाए। 1909 में सरकार ने यह माँग मान ली। अब परिषदों में कुछ सीटें मुसलमान उम्मीदवारों के लिए आरक्षित कर दी गईं जिन्हें मुसलिम मतदाताओं द्वारा ही चुनकर भेजा जाना था। इससे राजनेताओं में अपने धार्मिक समुदाय के लोगों को अपना राजनीतिक समर्थक बनाने का लालच पैदा हो गया ।
कांग्रेस में फूट
- 1907 में कांग्रेस टूट गई। संगठन टूटने के बाद कांग्रेस पर मध्यमार्गी का दबदबा बन गया जबकि तिलक के अनुयायी बाहर से काम करने लगे। दिसंबर 1915 में दोनों खेमों में एक बार फिर एकता स्थापित हुई। अगले साल कांग्रेस और मुसलिम लीग के बीच ऐतिहासिक लखनऊ समझौते पर दस्तखत हुए और दोनों संगठनों ने देश में प्रातिनिधिक सरकार के गठन के लिए मिलकर काम करने का फैसला लिया।
- 1917 में रूस में क्रांति हुई। इस घटना के चलते किसानों और मज़दूरों के संघर्षों का समाचार तथा समाजवादी विचार बड़े पैमाने पर फैलने लगे थे जिससे भारतीय राष्ट्रवादियों को नई रणा मिलने लगी।
महात्मा गांधी
- गांधीजी 46 वर्ष की उम्र में 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। वे वहाँ पर नस्लभेदी (Racist) पाबंदियों के खिलाफ अहिंसक आंदोलन चला रहे थे और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी अच्छी मान्यता थी और लोग उनका आदर करते थे। दक्षिण अफ्रीकी आंदोलनों की वजह से उन्हें हिंदू, मुसलमान, पारसी और ईसाई : गुजराती, तमिल और उत्तर भारतीय; उच्च वर्गीय व्यापारी, वकील और मज़दूर, सब तरह के भारतीयों से मिलने-जुलने का मौका मिल चुका था।
- उनके शुरुआती प्रयास चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद के स्थानीय आंदोलनों के रूप में सामने आए। 1918 में अहमदाबाद में उन्होंने मिल मजदूरों की हड़ताल का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया।
रॉलट सत्याग्रह
- 1919 में गांधीजी ने अंग्रेजों द्वारा हाल ही में पारित किए गए रॉलट कानून के खिलाफ सत्याग्रह का आह्वान किया। यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मूलभूत अधिकारों पर अंकुश लगाने और पुलिस को और ज्यादा अधिकार देने के लिए लागू किया गया था। महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना तथा अन्य नेताओं का मानना था कि सरकार के पास लोगों की बुनियादी स्वतंत्रताओं पर अंकुश लगाने का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने इस कानून को “शैतान की करतूत” और निरंकुशवादी (Autocratic) बताया। गांधीजी ने लोगों से आह्वान किया कि इस कानून का विरोध करने के लिए 6 अप्रैल 1919 को अहिंसक विरोध दिवस के रूप में, “अपमान व याचना” दिवस के रूप में मनाया जाए । रॉलट सत्याग्रह ब्रिटिश सरकार खिलाफ पहला अखिल भारतीय संघर्ष था। बैसाखी (13 अप्रैल) के दिन अमृतसर में जनरल डायर द्वारा जलियाँवाला बाग में किया गया हत्याकांड इसी दमन का हिस्सा था। इस जनसंहार पर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी पीड़ा और गुस्सा जताते हुए नाइटहुड की उपाधि वापस लौटा दी।
- नाइटहुड – ब्रिटिश राजा / रानी की तरफ से किसी व्यक्ति की अप्रतिम व्यक्तिगत सफलताओं या जनसेवा के लिए दी जाने वाली उपाधि |
खिलाफत आंदोलन और अहसयोग आंदोलन
- 1920 में अंग्रेज़ों ने तुर्की के सुल्तान ( खलीफा ) पर बहुत सख्त संधि थोप दी थी। जलियाँवाला बाग हत्याकांड की तरह इस घटना पर भी भारत के लोगों में भारी गुस्सा था। भारतीय मुसलमान यह भी चाहते थे कि पुराने ऑटोमन साम्राज्य में स्थित पवित्र मुसलिम स्थानों पर खलीफा का नियंत्रण बना रहना चाहिए। खिलाफत आंदोलन के नेता मोहम्मद अली और शौकत अली अब एक सर्वव्यापी असहयोग आंदोलन शुरू करना चाहते थे। गांधीजी ने उनके आह्वान का समर्थन किया और कांग्रेस से आग्रह किया कि वह पंजाब में हुए अत्याचारों (जलियाँवाला हत्याकांड) और खिलाफत के मामले में हुए अत्याचार के विरुद्ध मिल कर अभियान चलाएँ और स्वराज की माँग करें।
1922-1929 की घटनाएँ
- महात्मा गांधी हिंसक आंदोलनों के विरुद्ध थे। इसी कारण फरवरी 1922 में जब किसानों की एक भीड़ ने चौरी-चौरा पुलिस थाने पर हमला कर उसे जला दिया तो गांधीजी ने अचानक अहसयोग आंदोलन वापस ले लिया। उस दिन 22 पुलिस वाले मारे गये। किसा इसलिए बेकाबू हो गए थे क्योंकि पुलिस ने उनके जुलूस पर गोली चला दी थी।
दांडी मार्च
- 1930 में गांधीजी ने ऐलान किया कि वह नमक कानून तोड़ने के लिए यात्रा निकालेंगे। उस समय नमक के उत्पादन और बिक्री पर सरकार का एकाधिकार होता था। महात्मा गांधी और अन्य राष्ट्रवादियों का कहना था कि नमक पर टैक्स वसूलना पाप है क्योंकि यह हमारे भोजन का एक बुनियादी हिस्सा होता है। नमक सत्याग्रह स्वतंत्रता की व्यापक चाह को लोगों की एक खास शिकायत सभी से जोड़ दिया था और इस तरह अमीरों और गरीबों के बीच मतभेद पैदा नहीं होने दिया ।
- गांधीजी और उनके अनुयायी साबरमती से 240 किलोमीटर दर स्थित दांडी तट पैदल चलकर गए और वहाँ उन्होंने तट पर बिखरा नमक इकट्ठा करते हुए क का सार्वजनिक रूप से उल्लंघन किया।
- 1920 के दशक की शुरुआत से ही राष्ट्रीय आंदोलन (National Movement) में सक्रिय सरोजिनी नायडू दांडी यात्रा के मुख्य नेताओं में से एक थीं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर पहुँचने वाली वह पहली महिला थीं।
भारत छोडो
- महात्मा गांधी ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद भारतीय जनता से आह्वान किया कि वे “करो या मरो” के सिद्धांत पर चलते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध अहिंसक ढंग से संघर्ष करें।
मौलाना आज़ाद
- मौलाना आज़ाद का जन्म मक्का में हुआ था। उनके पिता बंगाली और माँ अरब मूल की थीं। बहुत सारी भाषाओं के जानकार आज़ाद इस्लाम के विद्वान और वहादते – दीन यानी सभी धर्मों की बुनियादी एकता के हिमायती थे। गांधीवादी आंदोलनों में हमेशा सक्रिय रहने वाले और हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्के हिमायती थे। उन्होंने जिन्ना के दो-राष् सिद्धांत (Two-nation theory) का विरोध किया था |
सरदार वल्लभ भाई पटेल
- सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 1945-47 के दौरान आज़ादी के लिए चली वार्ताओं में एक अहम भूमिका अदा की थी। पटेल नादियाड, गुजरात के एक गरीब किसान- व्यवसायी परिवार से थे। 1918 के बाद स्वतंत्रता आंदोलन की अगली कतार में रहने वाले पटेल 1931 में कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे।
साइमन कमीशन
- 1927 में इंग्लैंड में बैठी ब्रिटिश सरकार ने लॉर्ड साइमन की अगुवाई में एक आयोग भारत भेजा। इस आयोग को भारत के राजनीतिक भविष्य का फैसला करना था। इस आयोग में कोई भारतीय प्रतिनिधि नहीं था। इस फैसले की वजह से भारत में भारी असंतोष पैदा हुआ। सभी राजनीतिक संगठनों ने भी आयोग के बहिष्कार का फैसला लिया। जब कमीशन के सदस्य भारत पहुँचे तो प्रदर्शनों के साथ उनका स्वागत किया गया। प्रदर्शनकारियों का नारा था, “साइमन वापस जाओ” ।
पूर्ण स्वराज
- जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में 1929 में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पारित किया गया। इस प्रस्ताव के आधार पर 26 जनवरी 1930 को पूरे देश में “स्वतंत्रता दिवस’ मनाया गया।
क्रांतिकारी राष्टवादी
(Revolutionary Nationalist)
- भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव और उनके जैसे अन्य क्रांतिकारी राष्ट्रवादी
- औपनिवेशिक शासन तथा अमीर शोषक वर्गों से लड़ने के लिए मज़दूरों और किसानों की क्रांति चाहते थे। इस काम को पूरा करने के लिए उन्होंने 1928 में दिल्ली स्थित फिरोजशाह कोटला में Hindustan Socialist Republican Association (HSRA) की स्थापना की थी। 17 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद एवं राजगुरु ने लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज करने वाले सांडर्स नामक पुलिस अफसर की हत्या की थी। इसी लाठीचार्ज के कारण बाद में लाजपत राय की मृत्यु हो गई थी।
- अपने साथी राष्ट्रवादी बी.के. दत्त के साथ भगत सिंह ने 8 अप्रैल 1929 को केन्द्रीय विधान परिषद में बम फेंका था। क्रांतिकारियों ने अपने पर्चे में कहा था कि उनका मकसद किसी की जान लेना नहीं बल्कि “बहरों को सुनाना है तथा विदेशी सरकार को उसके द्वारा किए जा रहे भयानक शोषण से अवगत कराना है। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 23 मार्च, 1931 को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। उस समय भगत सिंह की आयु सिर्फ 23 साल थी।
प्रांतीय स्वायत्तता (Provincial Autonomy)
- भारतीय जनता के साझा संघर्षों के चलते आखिरकार 1935 के गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट में प्रांतीय स्वायत्तता का प्रावधान किया गया। सरकार ने ऐलान किया कि 1937 में
प्रांतीय विधायिकाओं के लिए चुनाव कराए जाएँगे। इन चुनावों के परिणाम आने पर 11 में से 7 प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद
- अगस्त 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तो तकरीबन 500 रियासतें राजाओं या नवाबों के शासन में चल रही थीं।
नए संविधान की रचना
(A Constitution is Written)
- हमारे संविधान की एक विशेषता यह थी कि इसमें सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का प्रावधान किया गया था। इसका मतलब यह था कि 21 वर्ष से अधिक आयु के सभी भारतीयों को प्रांतीय और राष्ट्रीय चुनावों में वोट देने का अधिकार था। यह एक क्रांतिकारी कदम था। इससे पहले भारतीयों को अपना नेता चुनने का अधिकार कभी नहीं था। ब्रिटेन और अमेरिका जैसे अन्य देशों के लोगों को यह अधिकार टुकड़ों में ही दिया गया। वहाँ अधिकांश में
- पहले संपन्न पुरुषों को वोट देने का अधिकार मिला। इसके बाद शिक्षित पुरुषों को भी मताधिकार दिया गया। मेहनतकशों को यह अधिकार लंबे संघर्ष के बाद मिला है। महिलाओं को आखिरी वोट दिया गया था।
संविधान की दूसरी विशेषता यह थी कि यह सभी जातियों, धर्मों या किसी भी प्रकार की पृष्ठभूमि के सभी नागरिकों को कानून की नजर में समान मानता था। भारत के कुछ लोग चाहते थे कि भारत की राजनीतिक व्यवस्था हिंदू आदर्शों पर आधारित हो और भारत को हिंदू देश घोषित किया जाए। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने पाकिस्तान का उदाहरण दिया, जिसका गठन एक खास समुदाय- मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए किया गया था. लेकिन भारतीय प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की स्पष्ट राय थी कि भारत “हिंदू पाकिस्तान” नहीं बन सकता है और न ही बनना चाहिए। - डॉ B.R अम्बेडकर संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे जिनके नेतृत्व में दस्तावेज़ को अंतिम रूप दिया गया था। संविधान सभा के समक्ष अपने अंतिम भाषण में डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र भी आवश्यक है।
राज्यों का गठन
1920 के दशक में स्वतंत्रता संघर्ष की मुख्य पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने आश्वासन दिया था कि जैसे ही देश आज़ाद हो जाएगा, प्रत्येक बड़े भाषायी समूह का अपना अलग प्रांत होगा। आजादी मिलने के बाद कांग्रेस ने इस आश्वासन को पूरा करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। क्योंकि भारत धर्म के आधार पर बँट चुका था।
- 1 अक्तूबर 1953 को आंध्र के रूप में एक राज्य का गठन हुआ, जो बाद में आंध्र प्रदेश बना ।
- 1960 में बम्बई प्रांत को मराठी और गुजरती भाषी, दो अलग राज्यों में बाँट दिया गया।
- 1966 में पंजाब का विभाजन हुआ और हरयाणा को अलग राज्य के रूप में मान्यता दी गई। विकास की योजन (Planning for Development)
- 1950 में सरकार ने आर्थिक विकास के लिए नीतियाँ बनाने और उनको लागू करने के लिए एक ‘योजना आयोग’ (Planning Commission) का गठन किया। इस बारे में ज़्यादातर सहमति थी कि भारत “मिश्रित अर्थव्यवस्था” (Mixed Economy) के रास्ते पर चलेगा। यहाँ राज्य और निजी क्षेत्र, दोनों ही उत्पादन बढ़ाने और रोज़गार पैदा करने में महत्त्वपूर्ण और परस्पर पूरक भूमिका अदा करेंगे। किस क्षेत्र की क्या भूमिका होगी – अर्थात कौन से उद्योग सरकार द्वारा और कौन से उद्योग बाजार द्वारा यानी निजी उद्योगपतियों द्वारा लगाए जाएँगे, विभिन्न क्षेत्रों और राज्यों के बीच किस तरह का संतुलन बनाया जायेगा इन सबको परिभाषित करना योजना आयोग का काम था।
- 1956 में दूसरी पंचवर्षीय योजना तैयार की गई। इस योजना में इस्पात (Steel) जैसे भारी उद्योगों और विशाल बाँध परियोजनाओं आदि पर सबसे ज़्यादा जोर दिया गया। ये काम सरकारी नियंत्रण के अंतर्गत रखे गए।
- भिलाई स्थित इस्पात कारखाने की स्थापना 1959 में तत्कालीन सोवियत संघ की सहायता से की गई थी। छत्तीसगढ़ के पिछड़े ग्रामीण इलाके में स्थित यह कारखाना आधुनिक भारत के विकास का एक महत्त्वपूर्ण प्रतीक बन गया था।
श्रीलंका और सिंहला भाषा
- 1956 में, जिस समय भारत में भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया जा रहा था, उसी समय श्रीलंका (तत्कालीन नाम सीलोन) की संसद ने एक कानून पारित करके सिंहला भाषा को देश की राजभाषा का दर्जा दे दिया। इस कानून के जरिए सिंहला भाषा को सभी सरकारी स्कूल-कॉलेजों, सरकारी परीक्षाओं और अदालतों की भाषा बना दिया गया। श्रीलंका के उत्तर में रहने वाले तमिलभाषी अल्पसंख्यकों ने इस नए कानून का विरोध किया। एक तमिल सांसद ने कहा कि “जब आप मुझसे मेरी भाषा छीन लेते हैं तो आप मेरा सब कुछ मुझसे छीन लेते हैं।” एक और नेता ने चेतावनी दी, “आप सीलोन को बाँटना चाहते हैं। निश्चित रहिए। मैं आश्वासन देता हूँ कि (आपको) एक विभाजित सीलोन ही मिलेगा ।” सिंहला भाषी एक विपक्षी सदस्य ने कहा था कि अगर सरकार अपना रुख नहीं बदलती है और इस कानून पर अड़ी रहती है तो “इस छोटे से देश में से दो टूटे-फूटे रक्तरंजित देश भी पैदा हो सकते हैं। “
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